किसका दोष
‘‘पता लगा आपको, बेचारे शर्मा जी के साथ तो बहुत बुरा हुआ। मिजेस शर्मा जी का तो रो-रोकर बुरा हाल है।’’
‘‘क्यों, ऐसा क्या हो गया उनके साथ’’ मैंने चौंककर पूछा।
‘‘एक ही तो बेटा था उनका, हाथ से निकल गया’’।
‘‘उनका बेटा तो आस्ट्रेलिया में पढ़ रहा था और सुना है वहीं उसे बहुत अच्छी नौकरी भी मिल गई है। आजकल आया हुआ है।’’
‘‘हां, यही तो। माता-पिता अपनी सारी पूंजी लगाकर बच्चों को दूर देश भेजते हैं कि अच्छे पढ़-लिख जायें और कुछ बनें। किन्तु आजकल के बच्चे, एक बार घर से निकलते हैं तो बस मां-बाप को तो भूल ही जाते हैं । शर्मा जी ने सोचा था कि अपनी पढ़ाई पूरी करके लौटकर अपना पैतृक व्यवसाय सम्हालेगा। उनके बुढ़ापे का सहारा बनेगा। लेकिन उसने साफ़ कह दिया कि वह तो अब आस्ट्रेलिया में ही सैटल होना चाहता है। उसे वहां बहुत अच्छी नौकरी मिल गई है। और वहीं शादी करेगा। और आप भी मेरे साथ चलिए। लेकिन यह सब कहां मुमकिन है। इतना बड़ा पैतृक घर है, पीढ़ियों से चला आ रहा व्यवसाय है। कैसे जा सकते हैं छोड़कर।’’
‘‘पता नहीं आजकल के बच्चों को क्या होता जा रहा है, मां-बाप की तो ज़रा नहीं सोचते जिन्होंने पाल-पोसकर बड़ा किया, पढ़ाया-लिखाया।’’
मैं असमंसज में थी कि क्या कहूँ।
“लेकिन शर्मा जी की तो हार्डवेयर की दुकान है न। और बेटा तो बहुत सालों से बाहर ही पढ़ रहा था।“
‘‘जी हां, पहले तो उसे दिल्ली पढ़ाया। फिर आगे की पढ़ाई के लिए उसे इतना पैसा खर्च करके आस्ट्रेलिया भेजा। पांच-छः साल हो गये उसे वहां। कम्प्यूटर इंजीनियर है शायद। अब कहता है वहीं रहेगा। आप ही बताईये आजकल के बच्चे मां-बाप के बारे में ज़रा भी नहीं सोचते।‘‘
अब मुझे बोलना ही पड़ा ‘‘हमारी पीढ़ी की आदत ही हो गई है बच्चों को बुरा समझने की। सदैव बच्चे ही गलत नहीं होते। इसमें बेटे की गलती कहां है? गलती तो मां-बाप की है। शुरु से घर से बाहर पढ़ाते रहे। इतने सालों से मेहतन करके वो इंजीनियर बना, अब क्या वो हार्डवेयर का काम कर सकेगा? वो जब भी छुट्टी आता था उसे कभी दुकान पर साथ नहीं बैठाया। अब अचानक वह कैसे बदल जायेगा? जिस राह हम स्वयं ही बच्चों को भेज देते हैं, फिर अचानक लौटने के लिए कहने लगते हैं, कहां मुमकिन होता है उनके लिए। अपनी इतनी पढ़ाई को वो कैसे छोड़कर लौट सकता है? फिर भी हर साल मिलने आता है और माता-पिता से दूर नहीं जा रहा है, उन्हें साथ चलने के लिए कह रहा है। क्यों और कैसे गलत है वो?’’
^^आखिर क्यों हम हर बार बच्चों को ही दोषी मान लेते हैं, क्यों अपने ही दिये गये मार्गदर्शन के बारे में खुलकर विचार नहीं करते?**
हरिराम जी अचानक ही चुप हो गये, कि बात तो किसी हद तक ठीक है। उनके पास मेरी बात का कोई उत्तर नहीं था।