काजल पोत रहे अंधे

अंधे के हाथ बटेर लगना,

अंधों में काना राजा, 

आंख के अंधे नाम नयनसुख,

सुने थे कुछ ऐसे ही मुहावरे।

पर आज ज्ञात हुआ

यहां तो

काजल पोत रहे अंधे।

बड़ी असमंजस की स्थिति बन आई है।

क्यों काजल पोत रहे अंधे।

किसके चेहरे पर हाथ

साफ़ कर रहे ये बंदे।

काजल लगवाने के लिए

उजले मुख लेकर

कौन घूम रहे बंदे।

अंधे तो पहले ही हैं

और कालिमा लेकर

अब कर रहे कौन ये धंधे।

 

कालिमा लग जाने के बाद

कौन बतलायेगा,

कौन समझायेगा,

कैसे लगी, किसने लगाई।

किसके लगी, कहां से आई।

काजल की है, या कोयले की,

या कर्मोa की,

करेगा कौन निर्णय।

कहीं ऐसा तो नहीं

जो पोत रहे काजल,

सब हैं आंख से चंगे,

और हम ही बन रहे अंधे।

 

क्योंकि हम देखने से डरने लगे हैं।

समझने से कतराने लगे हैं।

सच बोलने से हटने लगे हैं।

अधिकार की बात करने से बचने लगे हैं।

किसी का साथ देने से कटने लगे हैं।

और

गांधी के तीन बन्दर बनने में लगे हैं ।

न देखो, न सुनो, न बोलो।

‘‘बुरा’’ तो गांधी जी के साथ ही चला गया।