आत्मश्लाघा का आनन्द

अच्छा लगता है

जब

किसी-किसी एक दिन

पूरे साल में

बड़े सम्मान से

स्मरण करते हो मुझे।

मुझे ज्ञात होता है

कितनी महत्वपूर्ण हूं मैं

कितनी गुणी, जगद्जननी

मां, सुता, देवी, त्याग की मूर्ति,

इतने शब्द, इतनी सराहना

लबालब भर जाता है मेरा मन

और उलीचने लगते हैं भाव।

 

फिर

सालती हैं 

यह स्मृतियां पूरे साल।

सम्मान पत्र

व्यंग्योक्तियों से

महिमा-मण्डित होने लगते हैं।

रसोई में टांग देती हूं

सम्मान-पत्रों को

हल्दी-नमक से

तिलक करती हूं सारा साल]

कभी-कभी

बर्तनों की धुलाई में

मिट जाती है लिखाई

निकल बह जाते हैं

नाली से

लुगदी बन फंसतीं है कहीं

और फिर पूरा वर्ष

निकल जाता है

सफ़ाई अभियान में।

 

वर्ष में कई बार याद आता है

नारी तू नारायणी।

और हम चहक उठते हैं

मिले इस कुछ दिवसीय सम्मान से।

अपना गुणगान

आप ही करने लगते हैं।

आत्मश्लाघा का भी तो

एक अपना ही आनन्द होता है।