संकुचित मानसिकता आज क्यों बढती जा रही है

यह बात बिल्कुल सत्य है कि आज संकुचित मानसिकता बढ़ती जा रही है। यह सामाजिक, पारिवारिक तौर पर चिन्ता का विषय है।

संकुचित मानसिकता के भी कई रूप हैं। धार्मिक, सामाजिक, पारिवारिक। मेरी दृष्टि में इस समय हमारी सर्वाधिक संकुचित मानसिकता धार्मिक है।  दूसरे स्थान पर सामाजिक है, जो धार्मिकता से ही प्रभावित है।

 धर्म से जुड़े रहना अच्छी बात है किन्तु अंध-धार्मिकता मनुष्य को पीछे ले जाती है। वर्तमान में शिक्षा, रोज़गार, आत्मनिर्भरता, चिकित्सा सुविधाओं से अधिक चर्चा हम धर्म पर करने लगे हैं। आज अनेक तथाकथित धर्म-प्रचारक आॅन-लाईन बैठे हैं और हम लोग चाहे-अनचाहे उन्हें सुनने लगते हैं, रील्ज़ देखने लगते हैं, जो एक धीमे ज़हर के रूप में हमारे मन-मस्तिष्क पर प्रभाव डालते हैं और हमारी सोच अपने-आप ही बदलने लगती है और इस परिवर्तन को हम समझ ही नहीं पाते।

चिन्तनीय यह कि पढ़े-लिखे लोग भी इससे अछूते नहीं हैं। एक ओर हम विज्ञान में चाॅंद को छू रहे हैं दूसरी ओर हम अंधविश्वासों से पीछा नहीं छुड़ा पा रहे हैं। इसका एक कारण आज के समाज में प्रदर्शन, दिखावा बढ़ता जा रहा है। हम अपने-आपको हर समय दूसरों से बेहतर सिद्ध करने के प्रयास में लगे रहते हैं। किन्तु यह बेहतरी रहन-सहन, व्यवहार की नहीं, अपने आपको अकारण श्रेष्ठ सिद्ध करने की भावना को लेकर है।  धर्म, संस्कृति, पूजा-पाठ, पर्वों पर अकारण दिखावा भी संकुचित मानसिकता का ही प्रतीक है, क्योंकि हम सहज-सरल जीवन से दूर होकर प्रदर्शनों की दुनिया में जीने लगे हैं।