औरत होती है एक किताब

औरत होती है एक किताब।

सबको चाहिए

पुरानी, नई, जैसी भी।

अपनी-अपनी ज़रूरत

अपनी-अपनी पसन्द।

उस एक किताब की

अपने अनुसार

बनवा लेते हैं

कई प्रतियाँ,

नामकरण करते हैं

बड़े सम्मान से।

सबका अपना-अपना अधिकार

उपयोग का

अपना-अपना तरीका

अदला-बदली भी चलती है।

कुछ पृष्ठ कोरे रखे जाते है

इस किताब में

अपनी मनमर्ज़ी का

लिखने के लिए।

और जब चाहे

फाड़ दिये जाते हैं कुछ पृष्ठ।

सब मालिकाना हक़

जताते हैं इस किताब पर,

किन्तु कीमत के नाम पर

सब चुप्पी साध जाते हैं।

सबसे बड़ा आश्चर्य यह

कि पढ़ता कोई नहीं

इस किताब को

दावा सब करते हैं।

उपयोगी-अनुपयोगी की

बहस चलती रहती है

दिन-रात।

वैसे कोई रैसिपी की

किताब तो नहीं होती यह

किन्तु सबसे ज़्यादा

काम यहीं आती है।

अपने-आप में

एक पूरा युग जीती है

यह किताब

हर पन्ने पर

लिखा होता है

युगों का हिसाब।

अद्भुत है यह किताब

अपने-आपको ही पढ़ती है

समझने की कोशिश करती है

पर कहाँ समझ पाती है।