समाधान या हार

कोई भी समस्या आने पर उसका समाधान ढूॅंढने की अपेक्षा हम हार मानने लगे हैं।

आजकल समाचारों में आत्महत्याओं के समाचार विचलित करते हैं। अंक कम आने पर, नौकरी मिलने पर, परिवार में थोड़ी-सी कहा-सुनी पर बड़े क्या, बच्चे भी आत्महत्या करने लगे हैं। इसके कारण की ओर कभी हमारा ध्यान गया क्या?

मुझे लगता है आज की पीढ़ी अपने-आप में जीने लगी है। वह केवल अपने आप ही सोचती है, स्वयं निर्णय लेती है और असफ़ल होने पर तत्काल हार मान लेती है। परिवार से दूरियाॅं इसका एक कारण हो सकता है। परिवार एकल हैं और कोई भी अपनी समस्याओं को बाॅंटने के लिए किसी को अपने आस-पास नहीं देख पाता। एक अन्य कारण यह भी हो सकता है कि वर्तमान में अपेक्षाएॅं बहुत अधिक हैं और विकल्प कम। वैसे विकल्प कम तो नहीं हैं किन्तु हमने ही विकल्प सीमित कर लिए हैं। यदि किसी मार्ग पर हम सहज रूप से नहीं चल पा रहे हैं तो राहें बदलने के बहुत से विकल्प होते हैं किन्तु वर्तमान में इसे सहजता से नहीं लिया जाता और गलत कदम उठा लिये जाते हैं। प्रथम आने का दबाव, अच्छी नौकरी, खर्चीली जीवन-शैली, प्रदर्शन, कहीं कहीं मानसिक तनाव पैदा करती हैं।

एक और कारण जो मुझे प्रतीत होता है कि पुरुष जब किसी क्षेत्र में असफ़ल होता है तो वह हीन-भावना से ग्रस्त हो जाता है और अपनी हार किसी के समक्ष स्वीकार नहीं कर पाता विशेषकर पत्नी के समक्ष अपने को हारा हुआ आदमी नहीं दिखा सकता। उसकी यह भावना उसे पहले मानसिक तनाव , उपरान्त आत्महत्या तक ले जाती है।

कोई भी समस्या आने पर उसका समाधान ढूॅंढने की अपेक्षा हम हार मानने लगे हैं। इस समस्या का एक ही समाधान है कि हम परिवार, मित्रों के साथ जुड़ें, अपने हितचिन्तकों को पहचानें और कोई भी कठोर निर्णय लेने से पहले अच्छे से विचार करें।