उत्सव-खुशी और आतिशबाजी की तार्किकता
दीपावली के अवसर पर सदैव ही आतिशबाजी होती रही है। किन्तु आज आतिशबाजी से पर्यावरण प्रदूषित होने के कारण इसे प्रतिबन्धित करने की बात की जाती है।
आतिशबाजी चलाने वाले इसे अपने घर नहीं बनाते । वे किसी छोटे दुकानदार से खरीद कर लाते हैं। छोटा दुकानदार किसी थोक व्यापारी से लाता है और थोक-व्यापारी आतिशबाजी बनाने वाली फ़ैक्ट्री से, और इस कार्य के लिए ये सरकार से लाईसेंस लेते हैं अथवा कुछ अवैध भी बनाते हैं। अर्थात शुरुआत आशिबाजी चलाने वालों की ओर से नहीं, सरकार की ओर से होती है।
फिर आजकल हरी आतिशबाजी का प्रदर्शन भी हो रहा है, क्रेता कहां जान पाता है कि आतिशबाजी हरी है, काली या नीली। जो मिलती है ले लेते हैं। हां, इतना अवश्य है कि हरी आशिबाजी के नाम पर खूब लूट हो रही है। ध्वनि प्रदूषण तो उससे भी होता ही होगा।
कहने का अभिप्राय यह कि हम मूल की ओर तो जाते ही नहीं, केवल आंखों देखी पर बात करते हैं, चर्चा करते हैं, बुराई करते हैं। यदि आतिशबाजी इतनी ही हानिकारक है तो इनकी फ़ैक्ट्रियों पर प्रतिबन्ध लगाये जाने चाहिए। कह सकते हैं कि इससे रोज़गार पर प्रभाव पड़ेगा, तो यह भी सरकार का ही कार्य है कि ऐसी फ़ैक्ट्रियों को किसी नवीन निर्माण सामग्री के लिए सहयोग प्रदान करे।
कोर्ट का आदेश जनता के लिए है सरकार के लिए क्यों नहीं। और उससे भी अधिक विचारणीय बात यह कि नेताओं की विजय पर भी खूब आतिशबाजी होती है, नववर्ष एवं कुछ अन्य धर्मों के गुरुओं के दिवस पर भी आतिशबाजी होती है, तब क्या प्रदूषण नहीं होता। मेरा यह अभिप्राय कदापि नहीं कि इस कारण हिन्दू पर्वों पर आतिशबाजी की छूट दी जाये, किन्तु नियन्त्रण हर रूप में किया जाना चाहिए।
अतः इसके लिए सरकार को ठोस कदम उठाने चाहिए, जिससे आतिशबाज़ी का निर्माण ही बन्द हो, और समय की आवश्यकतानुसार इन्हें किसी नये काम के लिए सरकार की ओर से सुविधाएं प्रदान की जानी चाहिएं।
यह बात बिल्कुल वैसी ही है कि प्लास्टिक के लिफ़ाफ़े प्रयोग करने पर सब्ज़ी बेचने वाले का 500 रुपये का चालान काटा जाता है किन्तु बनाने वाले बना रहे हैं, उन पर कोई रोक नहीं।