विडम्बना
मैं अपने-आपको नास्तिक मानती हूॅं । क्योंकि मूर्ति-पूजा, मन्दिर जाना, प्रवचन, धार्मिक आख्यानों, व्रत-उपवास, साधु-संतों में मेरा विश्वास नहीं बनता। किन्तु जो मानते हैं मैं उनकी भी विरोधी नहीं हूॅं। किन्तु वर्तमान में आख्यानक, मंचों से धार्मिक भाषण परोसने वाले बाबा और बेबियाॅं मुझे कभी समझ नहीं आते। वे क्या समझाना चाहते हैं और लोगों की लाखों की भीड़ अपने जीवन में उनके भाषण से क्या समझना चाहती है, जो वे स्वयॅं नहीं जानते। उनकी भाषा, उनकी बातें, सब अद्भुत होती हैं। ऐसा प्रतीत होता है मानों हमारा जन्म ही व्यर्थ है और हम नितान्त मूर्ख, अज्ञानी हैं। परिवार, समाज, सम्बन्ध सब लालसाएॅं हैं। वे मनोवैज्ञानिक अथवा मनोविश्लेषक भी नहीं होते किन्तु लोगों को इस रूप में भ्रमित अवश्य करते हैं। घंटों भीड़ में बैठकर, अपना पूरा दिन भूखे-प्यासे, घरों से दूर, क्या उपलब्ध होता है लोगों को। इन लोगों की अधकचरी ज्ञान से सनी धार्मिक ग्रंथों की मन से गढ़ी कथाएॅं क्या दे पाती हैं लोगों को, समझ नहीं आता। वास्तव में यह वैसा ही भीेड़-तंत्र है जैसे आजकल सड़कों पर होता है। जब लोग बिना जाने-समझे, किसी को पिटता देख उसे पीटने में हाथ आजमाने लग जाते हैं। वैसे ही, यहाॅं भी होता है कि भीड़ में घुसकर देखें तो यहाॅं क्या हो रहा है।
किन्तु भीड़ में घुसकर, हाथ आजमाने में कब जान चली जाती है कब अपने खो जाते हैं, कब क्या लुट जाता है, कौन समझ पाता है।
किन्तु यहाॅं भी तो यही कहा जाता है कि चलो ऐसे स्थान पर जान गई, सीधे स्वर्ग पहुॅच गये।
किसी ने लिखा था कि देह यहाॅं जल जाती है, आत्मा अजर-अमर है तो नर्क और स्वर्ग का कैसे पता।
ऐसे हादसों में कोई अपराधी नहीं होता। किसी को दण्ड नहीं मिलता। वैसे भी हमारे भारत में दण्ड व्यवस्था बहुत विनम्र है। जीवन बीत जाता है किसी अपराधी को पकड़ने में और दण्डित करने में, और निरपराध कारागार में जीवन बिता देते हैं।
मृतकों को दो-दो लाख, घायलों को दस-बीस हज़ार, हमारा कर्तव्य पूरा। यह और बात है कि यह घोषित राशि वास्तव में मिलेगी भी या नहीं।
हाथरस की घटना से हम कोई सबक तो लेंगे नहीं।
तो तैयार रहिए अगली दुर्घटना की बात सुनने के लिए।