मित्रता

मैं नहीं जानती कि मैं क्यों मित्र नहीं बना पाती थी। जहॉं मैं स्वभाव की बहुत बड़बोली मानी जाती थी वहॉं व्यक्तिगत रूप से बहुत संकोची थी। अर्थात मन की बात किसी से कह देना मेरे स्वभाव में कभी नहीं रहा। और जब हम मित्रों से अपने बारे में छुपाने लगते हैं और झूठ बोलने लगते हैं तो वे दूर हो जाते हैं क्योंकि हर कोई इतना तो समझदार होता ही है कि वह वास्तविकता और छुपाव में अन्तर कर लेता है।

किन्तु कवि गोष्ठियों एवं समारोहों में मेरी एक मित्र बनी मीरा दीक्षित। यह शायद 1994-95 के आस-पास की बात है। हम प्रायः मिलते, घर भी आते-जाते और परस्पर खुलकर बातें भी करते। यद्यपि मैं यहॉं इस रूप में संकोची ही रही किन्तु मीरा शायद मेरे इस स्वभाव को जान गई थी और इसे उसने सहज लिया और हमारी मित्रता अच्छी रही।

किन्तु सन् 2000 के आस-पास मेरे जीवन में कुछ ऐसी घटनाएॅं-दुर्घटनाएॅं घटीं कि हम शहर छोड़कर सारी स्मृतियॉं पीछे छोड़कर बहुत दूर निकल गये। नया शहर, नये लोग, नई परिस्थितियॉं, नये संघर्ष, पिछला कुछ तो मिट गया, कुछ छूट गया। स्मृतियॉं विश्रृंखलित हो गईं।

इस बीच 2011 में मैं फ़ेसबुक से जुड़ी और मेरा लेखन पुनः आरम्भ हुआ। 2016 में मेरी एक रचना पर मेरी मित्र मीरा का संदेश आया कि कविता कहॉं हो। मुझे याद ही नहीं आया। फिर संदेश बाक्स में बात होती रही, वे पूछती रहीं और मैं अनुमान लगाती रही। बाद में उन्होंने कुछ संकेत दिये तो मैं पहचान पाई। जितनी प्रसन्नता हुई उतना ही दुख कि मैं अपनी ऐसी मित्र को कैसे भूल सकती थी। फिर बीच-बीच में कभी बातचीत, विचारों का आदान-प्रदान, रचनाओं पर प्रतिक्रियाएॅं।

किन्तु मेरे लिए वह एक बहुत ही सुन्दर दिन था जब मेरा एक साहित्यिक समारोह में लखनउ जाने का कार्यक्रम बना। मीरा लखनउ में ही थीं। मैंने उन्हें तत्काल फ़ोन किया और मिलने का कार्यक्रम बनाया। मेरे पास समय कम था, 26 मई को मैं समारोह के लिए पहुॅची और 27 दोपहर की मेरी वापसी थी।

लगभग 24 साल बाद हम मिले। मीरा मुझसे मिलने प्रातः 8 बजे मेरे होटल आईं। हमने मात्र दो घंटे साथ बिताए, किन्तु वे दो घंटे मेरे लिए अविस्मरणीय रहे। इतना आनन्द, सुखानुभूति, लिखना असम्भव है।

हमने यही कहा, यदि ईश्वर ने यह अवसर दिया है तो आगे भी ज़रूर मिलेंगे।