छायावाद

छायावादी साहित्य को हिन्दी का स्वर्ण युग कहा जाता है। @ब्रज भाषा से निकलकर हिन्दी खड़ी बोली, द्विवेदी काल की इतिवृत्तात्मकता स्थूलता और नैतिकता के विरुद्ध प्रतिक्रिया के रूप से बाहर आकर छायावादी काल ने हिन्दी साहित्य को एक नवीन चिन्तन, भाषा एवं स्वच्छन्दता प्रदान की।

साहित्य की कोई ऐसी विधा नहीं जो इस काल में विकसित न हुई हो। भाषा की प्रांजलता, नवीन भावों की अभिव्यक्ति, सांस्कृतिक चेतना की लहर, कालानुसार विषय, काव्य-रूढ़ियों से मुक्ति,  प्रेम, प्रकृति प्रेम, राष्ट्रवाद, एक नवीन सौन्दर्यबोध को रूपायित करती, रहस्यवाद, प्रगतिवाद एवं नई कविता की ओर बढ़ते कदम, छायावादी कविता ने साहित्य लेखन की दिशा ही बदल दी। इस काल में काव्य विधा ही प्रधान रही, यद्यपि नाटक, संस्मरण, निबन्ध, उपन्यास एवं अन्य गद्य विधाओं में भी उत्कृष्ट साहित्य का सृजन हुआ।

1918 से 1936 तक का काल छायावादी काल माना जाता है। वर्ष 1921 में सरस्वती पत्रिका में प्रकाशित लेख ‘हिन्दी में छायावाद’से ही इस काल के साहित्य को छायावाद नाम मिला, यह माना जाता है। मुकुटधर पाण्डेय को ही इस नामकरण का श्रेय दिया गया है। छायावाद के चार प्रमुख स्तम्भ माने जाते हैं: जयशंकर प्रसाद (30 जनवरी 1889-15 नवंबर 1937)  सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला  (21 फ़रवरीए 1896- 15 अक्टूबर 1961) सुमित्रानंदन पंत  (20 मई 1900  28 दिसंबर 1977) महादेवी वर्मा (26 मार्चए 1907-11 सितम्बर 1987)

 हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में इन चारों में वैयक्तिक आवेगों की आयासहीन अभिव्यक्ति है, चारों की कविताओं में कल्पना अविरल प्रवाह से घन-संश्लिष्ट आवेगों की उमड़ती हुई भावधारा का प्राबल्य है।, जयशंकर प्रसाद की संस्कृतनिष्ठ भाषा शैली, प्रवाह, अद्भुत सौन्दर्यात्मक प्रकृति चित्रण, सुमित्रानन्दन पन्त की कोमलकान्त पदावली, प्रेम व सौन्दर्य की अभिव्यक्ति, महादेवी वर्मा की कोमल भावों से परिपूर्ण मन को छूती रचनाएं और सूर्यकान्त त्रिपाठी की नवीन भाषा-शैली, बेबाक लेखन, भावों का खुलापन, नई कविता की ओर बढ़ते कदम एवं छन्दमुक्त रचनाएं पूर्ण छायावाद युग को सार्थक करते हैं।

छायावादी काव्य को प्रसाद ने प्रकृति-तत्व दिया, निराला ने मुक्त छन्द दिया, पन्त ने सरसता एवं कोमलता दी तो महादेवी ने उसे सप्राणता एवं भावात्मकता देकर सम्पन्न किया।

छायावाद को स्पष्ट करने के लिए विभिन्न आलोचकों ने अनेक परिभाषाएं दी हैं एवं व्याख्यायित किया है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने छायावाद का अर्थ दो रूपों में बताया है : प्रथम रहस्यवाद के अर्थ में और दूसरा  प्रयोग काव्य शैली या पद्धति विशेष के अर्थ में । महादेवी वर्मा ने छायावाद का मूल दर्शन सर्वात्मवाद माना है।

 बाबू गुलाबराय, डा. रामकुमार वर्मा, शान्तिप्रिय द्विवेदी छायावाद और रहस्यवाद में कोई विशेष भेद नहीं मानते। उनके अनुसार छायावाद और रहस्यवाद दोनों ही मानव और प्रकृति का एक आध्यात्मिक आधार बनाकर एकात्मवाद की पुष्टि करते हैं। उनके अनुसार आत्मा और परमात्मा का गुप्त वाग्विलास रहस्यवाद है और वही छायावाद है। आचार्य नन्दुलारे वाजपेयी के शब्दों में मानव अथवा प्रकृति के सूक्ष्म किन्तु व्यक्त सौन्दर्य में आध्यात्मिक छाया का भान छायावाद की एक सर्वमान्य व्याख्या हो सकती है। गंगाप्रसाद पाण्डेय के शब्दों में छायावाद नाम से ही उसकी छायात्मकता स्पष्ट है। जयशंकर प्रसाद ने छायावाद को अपने ढंग से स्पष्ट करते हुए लिखा है कि कविता के क्षेत्र में पौराणिक युग की किसी घटना अथवा देश-विदेश की सुन्दरी के बाह्य वर्णन से भिन्न जब वेदना के आधार पर स्वानुभूतिमयी अभिव्यक्ति होने लगी तब हिन्दी में उसे छायावद के नाम से अभिहित किया गया। डा. देवराज छायावाद को आधुनिक पौराणिक धार्मिक चेतना के विरुद्ध आधुनिक लौकिक चेतना का विद्रोह स्वीकार करते हैं। डा. नगेन्द्र के शब्दों में छायावाद एक विशेष प्रकार की भाव-पद्धति है, जीवन के प्रति एक विशेष प्रकार का भावात्मक दृष्टिकोण है।

छायावाद अपने युग की राजनीतिक, स्वतन्त्रता आन्दोलन, धार्मिक और दार्शनिक परिस्थितियों से भी प्रभावित हुआ। छायावाद पर रामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द, गांधी, टैगोर एवं अरविन्द जैसे महापुरुषों की भी छाप है। दर्शन के क्षेत्र में भी इन कवियों की रचनाओं में अद्वैतवाद एवं सर्वात्मवाद के भाव दृष्टिगत होते हैं। हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में छायावाद एक विशाल सांस्कृतिक चेतना का परिणाम था, जिनमें मानवीय आचारों, क्रियाओं, चेष्टाओं और विश्वासों के बदले हुए और बदलते हुए मूल्यों को अंगीकार करने की प्रवृत्ति थी, जिनमें छंद, अलंकार, रस, ताल, लय आदि सभी विषयों में गतानुगतिकता से बचने का प्रयत्न था, शास्त्रीय रूढ़ियों के प्रति कोई आस्था नहीं दिखाई गई थी।

निर्विवाद रूप से सभी समीक्षक जयशंकर प्रसाद को ही छायावाद का प्रवर्तक मानते हैं। 1913-14 के आस-पास प्रसाद की कविताएं इन्दु पत्रिका में प्रतिमास प्रकाशित हो रही थीं जो बाद में कानन-कुसुम पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुईं। यद्यपि कुछ समीक्षक सुमित्रानन्दन पन्त को भी छायावाद का प्रवर्तक कवि मानते हैं किन्तु इस विषय में स्पष्ट कहा जा सकता है कि प्रसाद काव्य क्षेत्र में पन्त से पहले आये और उनकी रचनाओं में आरम्भ से ही छायावाद की मूलभूल प्रवृत्तियां-आत्मनिष्ठता, अन्तर्मुखी दृष्टि, प्रकृति के प्रति नवीन दृष्टिकोण, अभिव्यक्ति की नूतन शैली आदि मिलती है, इस कारण प्रसाद को ही निर्विवाद रूप से छायावाद के प्रवर्तक कवि के रूप में स्वीकार किया गया है।

हिन्दी के प्रमुख छायावादी कवि

-------.---------

जयशंकर प्रसाद

============

प्रसाद की रचनाओं में छायावाद का उत्तम स्वरूप मिलता है। जयशंकर प्रसाद बहुमुखी प्रतिभा-सम्पन्न साहित्यकार थे। वे कवि, नाटककार, उपन्यासकार, कहानीकार, निबन्ध लेखन सभी विधाओं में पारंगत थे, किन्तु उनका कवि-रूप उनकी समस्त कृतियों में विद्यमान है। नौ वर्ष की आयु में उन्होंने कलाधर उपनाम से अत्यन्त मनोहर और सरस छन्द की रचना की। सत्रह वर्ष की आयु में इनकी रचनाएं इन्दु पत्रिका में प्रकाशित होने लगीं। उपरान्त ये कविताएं चित्राधार और कानन-कुसुम संग्रहों में प्रकाशित हुईं।

प्रेम तत्व की व्यंजना प्रसाद काव्य की प्रथम और प्रमुख प्रवृत्ति है। उनके द्वारा अभिव्यक्त प्रेम लौकिक होकर भी आध्यात्मिकता की ओर उन्मुख है। नारी सौन्दर्य को सुन्दर रूप में प्रस्तुत करने में प्रसाद की लेखनी सर्वोत्तम है। उनका सौन्दर्य चित्रण स्थूल न होकर सूक्ष्म है। कामायनी में चित्रित श्रद्धा का सौन्दर्य हमें आकृष्ट करता है।

इसके अतिरिक्त काव्य और दर्शन का विलक्षण समन्वय प्रसाद की रचनाओं में मिलता है। दर्शन में भी प्रसाद वेदान्त दर्शन से ज़्यादा प्रभावित हैं। किन्तु कामायनी में उन्होंने जिस आनन्दवाद का प्रतिपादन किया है वह शैव दर्शन से प्रभावित है। कामायनी महाकाव्य कला की दृष्टि से छायावाद का सर्वोत्तम प्रतीक है एवं आंसू प्रसाद की अन्यतम कृतियां हैं।

भारतीय इतिहास, संस्कृति, के प्रति प्रेम, वैभवमय अतीत के प्रति आग्रह, मानवतावाद एवं प्रकृति का एक नये स्वरूप में चित्रण  प्रसाद की रचनाओं की एक अन्य विशेषता है। प्रकृति का मानवीकरण, नवीन बिम्ब एवं प्रतीकों के माध्यम से प्रसाद की रचनाओं में प्रकृति सौन्दर्य मुखरित होकर बोलता है। उनकी भाषा में लाक्षणिकता, ध्वन्यात्मकता, चित्रमयता एवं उच्च कोटि की प्रतीकात्मकता है। उन्होंने हिन्दी साहित्य को नूतन भावराशि, नूतन अभिव्यंजना, नूतन भाषा शैली एवं कला-कौशल से समृद्ध किया है।

प्रसाद के अधिकांश नाटक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर आधारित हैं जिनमें राष्ट्रप्रेम की भावना बहुत गहरे से है। नाटकों की कविताएं भी उनके देश-प्रेम, प्रकृति की अन्यतम अभिव्यक्ति, सौन्दर्य भाव को व्याख्यायित करती हैं

सुमित्रानन्दन पन्त

=========

पन्त का प्रथम काव्य-संग्रह पल्लव नवीन काव्य गुणों को लेकर हिन्दी साहित्य जगत में आया। पन्त की रचनाओं में सौन्दर्य के प्रति अत्यन्त कोमल मनोभाव हैं। पल्लव की भूमिका में ही कवि की सम्पूर्ण छायावादी दृष्टि स्पष्ट हो जाती है। हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में इस भूमिका में समस्त छायावादी कविता के लिए क्षेत्र प्रस्तुत किया। इस भूमिका से पन्त की उस महत्वपूर्ण बौद्धिक क्षमता का पता लगता है जिसके द्वारा उन्होंने शब्दों की प्रकृति, उनकी अर्थबोधन क्षमता, उनके अर्थों के भेदक पहलुओं की विशिष्टता, छन्दों की प्रकृति, तुक और ताल का महत्व समझा था और समझने के बाद काव्य में प्रयोग किया था।

पन्त का छन्द-प्रवाह अत्यन्त शक्तिशाली है। प्रकृति और मानव-सौन्दर्य के सम्मिलन से उनकी रचनाओं में अद्भुत सौन्दर्य की सृष्टि होती है । कवि बंधी रूढ़ियों के प्रति कठोर नहीं है। मनुष्य के कोमल स्वभाव, अकृत्रिम प्रीति स्निग्ध हृदय और प्रकृति के विराट् और विपुल रूपों में अन्तर्निहित शोभा का ऐसा मनोहारी हृदयकारी चित्रण छायावादी काव्य में अन्यत्र नहीं देखा गया।

पन्त मूलतः गीतिकाव्य के एवं रोमांटिक कवि हैं। ज्योत्सना आदि नाटकों के सभी पात्र गीतिकाव्यात्मक एवं रोमांटिक हैं। उन्होंने कभी कथाकाव्य लिखने का प्रयास नहीं किया। उनके काव्य के तीन उत्थान हैं। प्रथम में वे छायावादी कवि हैं, द्वितीय में वे समाजवादी आदर्शों से चालित हैं और तीसरे में आध्यात्मिक। पन्त अरविन्द के आध्यात्मिक तत्वदर्शन से भी प्रभावित हैं। किन्तु पन्त वस्तुतः सौन्दर्य की महिमा के अनासक्त साक्षी कवि हैं। छायावाद को स्थापित करने में पन्त की रचनाओं का महत्वपूर्ण योगदान है।

सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

=============

निराला छायावादी कवियों में प्रमुख होते हुए भी एक नवीन विचारधारा लेकर चले। वे आरम्भ से ही विद्रोही कवि के रूप में दिखाई दिये। गतानुगतिका के प्रति तीव्र विद्रोह इनकी कविताओं में आदि से अन्त तक बना रहा। निराला की प्रतिभा बहुमुखी है। निबन्ध, आलोचना, उपन्यास भी निराला की लेखनी से लिखे गये हैं। व्यंग्य और कटाक्ष उनकी प्रायः सभी रचनाओं में देखा जा सकता है। निराला का छन्दों के प्रति विद्रोह छन्दों का विरोध नहीं था, वे भावों की , व्यक्तिगत अनुभूति के भावों को स्वछन्द अभिव्यक्ति को महत्व देना चाहते थे। उनके मुक्त छन्द में एक प्रकार का झंकार और ताल विद्यमान है। इनकी रचनाओं में कथाकाव्य के प्रति झुकाव देखा जा सकता है।

उनकी आरम्भिक रचनाओं में ही उनकी स्वच्छन्दतावादी प्रकृति पूरे वेग से मिलती है। वस्तुतः निराला से बढ़कर हिन्दी में स्वच्छन्दतावादी कवि नहीं है। उनकी तुम और मैं, जूही की कली जैसी कविताओं में कल्पनाओं का आवेग है जिस कारण यह रचनाएं अत्यन्त लोकप्रिय हुईं। तुलसीदास, राम की शक्ति पूजा एवं सरोज-स्मृति जैसी कथात्मक रचनाएं निराला की सर्वोत्तम कृतियां हैं।

महादेवी वर्मा

===========

महादेवी वर्मा एक संवेदनशील कवियत्री हैं।उनकी रचनाएं गीतिकाव्यात्मक हैं लाक्षणिक वक्रता एवं मनोवृत्तियों की मूर्त योजना उनकी रचनाओं में विद्यमान है। महादेवी अपनी रचनाओं में अत्यधिक संवेदनशील हैं अतः उनकी रचनाओं में अनुभूति की गहन तीव्रता है।  नीहार के बाद की रचनाओं में उनकी रचनाओं में रहस्यवादी प्रवृत्ति देखी जा सकती है। वेदनाभाव महादेवी की रचनाओं की प्रमुख विशेषता है। यद्यपि  यह वेदनाभाव प्रियतम के अद्वैत का साधन रूप ही है तथापि महादेवी ने वेदना को आनन्द से सर्वथा उंचा स्थान दिया है। दुखानुभूति को लेकर महादेवी अज्ञात सत्ता की ओर उन्मुख हुई हैं। इस सत्ता को उन्होंने अपने प्रियतम के रूप में स्वीकार किया। प्रकृति का महादेवी के काव्य में भी प्रमुख स्थान है।

महादेवी के भाव एवं कला पक्ष दोनों ही सबल एवं समृद्ध हैं। भाषा अत्यन्त परिष्कृत, सरस एवं कोमल है। इनकी भाषा में लाक्षणिकता अधिक एवं अनुभूतियां अन्तर्मुखी हैं। तन्मयता, अनुभूति की तीव्रता तथा माधुर्य महादेवी के गीतों की प्रमुख विशेषताएं हैं।

यद्यपि छायावाद के ये ही चार कवि स्तम्भ माने जाते हैं किन्तु इस काल में अन्य अनेक कवियों ने उत्कृष्ट रचनाएं लिखीं जो तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक, एवं कालिक चेतना से प्रभावित एवं   छायावादी प्रवृत्तियों से भी प्रभावित रहीं।

हरिवंशराय बच्चन, रामधारी सिंह दिनकर, बालकृष्ण शर्मा नवीन, सियारामशरण गुप्त, भगवतीचरण वर्मा, माखनलाल चतुर्वेदी, सुभद्राकुमारी चौहान, रामकुमार वर्मा, पं. नरेन्द्र शर्मा, हरिकृष्ण प्रेमी, जानकी वल्लभ शास्त्री, उदयशंकर भट्ट, रामेश्वर शुक्ल अंचल, रामनरेश त्रिपाठी, आदि कवि भी इस काल के प्रभावी रचनाकार रहे।

इन कवियों की कविताएं यद्यपि छायावादी काल में रची गईं किन्तु इनकी रचनाओं पर इनकी अपनी दृष्टि अधिक प्रभावी रही।  हरिवंशराय बच्चन  की कविता मौज, मस्ती, उमंग और उल्लास की कविता है। इनकी कविता की मादकता ने सहृदयों को आकर्षित किया। लाक्षणिक वक्रता से हटकर सहज-सीधी भाषा के प्रयोग के कारण बच्चन बहुत लोकप्रिय हुए। रामधारी सिंह दिनकर व्यक्तिवादी दृष्टि का प्रत्याख्यान लेकर साहित्य मंच पर आये। वे छायावादी एवं प्रगतिवादी के बीच की कड़ी हैं।

बालकृष्ण शर्मा नवीन फ़क्कड़ कवि के रूप में जाने जाते हैं इनकी कविताएं राजनीतिक परिदृश्य से जुड़ी रहीं। सियारामशरण गुप्त चिन्तनशील कवि रहे। सहानुभूति से भरा हृदय, संसार के प्रति अनासक्त जिज्ञासा इनके काव्य के मूल में है। इनकी रचनाओं पर गांधी का प्रभाव स्पष्ट है। भगवतीचरण वर्मा की रचनाओं में मस्ती और उल्लास है और अपने प्रति दृढ़ विश्वास। उनकी आत्मकेन्द्रित मस्ती बाद में उनके उपन्यासों में व्यक्त हुई।

माखनलाल चतुर्वेदी की रचनाओं में छायावादी तत्वों से अधिक देश-प्रेम एवं देश-कल्याण के लिए उत्कट भावना है। यद्यपि आरभ्भिक रचनाओं में निर्गुण एवं सगुण भक्ति और रहस्य-भावना भी लक्षित होती है।

सुभद्राकुमारी चौहान राजनीति में सक्रिय भाग लेती रहीं अतः इनकी रचनाओं में राष्ट् प्रेम का भाव प्रमुख है। इसके अतिरिक्त इनकी कुछ रचनाएं पारिवारिक जीवन से प्रेरित हैं।

अन्य उल्लिखित कवियों की रचनाओं में भी छायावादी तत्वों के साथ अन्य समसामयिक विषय प्रधान रहे।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि छायावाद ने अभिव्यक्ति-शैली के क्षेत्र में बहुत बड़ी क्रांति की।

 छायावाद को स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह माना गया। वैयक्तिकता, भावात्मकता, संगीतात्मकता, संक्षिप्तता, कोमलता आदि सभी गीति-तत्वों का समावेश छायावादी काव्य में मिलता है। छन्द योजना में मौलिकता है। निराला ने अपनी भावाभिव्यक्ति के लिए मुक्त छन्द का आविष्कार किया। प्रतीकात्मकता छायावाद की एक अन्य विशेषता है। अपने सूक्ष्म भावों की अभिव्यक्ति के लिए लाक्षणिक प्रतीकात्मक शैली अपनाई, शब्द-शक्ति में अभिधा के स्थान पर लक्षणा व व्यंजना से काम लिया। उपमान-विधान के क्षेत्र में छायावादी कवियों ने मूर्त के लिए अमूर्त उपमान प्रयोग किये। इन कवियों ने जहां एक ओर उत्प्रेक्षा, उपमा, रूपक आदि पारम्परिक अलंकारों को लिया वहां दूसरी ओर उसमें मानवीकरण, विरोधाभास, विशेषण-विपर्पय आदि पाश्चात्य ढंग के अलंकार भी समाहित किये। छायावाद की भाषा का रूप प्रौढ़ हैं इसमें प्रायः संस्कृत की कोमल-कांत पदावली के दर्शन होते हैं।  खड़ी बोली को संवारने में छायावादी कवियों का महत्त योगदान है।

सारांश यह कि भाव-पक्ष एवं कला-पक्ष दोनों ही दृष्टियों से छायावाद काव्य अत्यन्त प्रौढ़ है।