पुस्तक अध्ययन
समय के साथ पुस्तकों की उपलब्धता भी कम है। आज किसी भी पुस्तक-विक्रेता के पास आपको हिन्दी साहित्य की पठनीय पुस्तकें नहीं मिलेंगी। पहले अनेक पुस्तक-विक्रेताओं के पास हिन्दी साहित्य की पुस्तकें उपलब्ध होती थीं और हम बाज़ार में घूमते -फिरते ऐसी दुकानों पर जाकर पुस्तकों का अवलोकन कर लेते थे और खरीद भी लेते थे, अब आप किसी भी पुस्तक-विक्रेता के पास चले जाईये कोई हिन्दी पुस्तक नहीं मिलेगी
मेरी समझ में एक समय भी होता है जब हमारी रूचियां इस तरह की होती हैं। कभी ऐसा ही समय था जब घर में कोई पुस्तक आती थी तो उसे पूरा पढ़कर ही रहते थे, यद्यपि, शायद आज से अधिक ही व्यस्त जीवन था। हिन्दी में प्राचीन-अर्वाचीन साहित्य, संस्कृति से सम्बन्धित श्रेष्ठ पुस्तकें उपलब्ध हैं, शोध कार्य के समय इतनी पुस्तकें पढ़ीं कि कोई गिनती ही नही। किन्तु अब ध्यान ही नहीं जाता कि पुस्तक खरीदी जाये या पढ़ी जाये, हां कभी जब मन होता है तब पुरानी पुस्तकों को ही देख-परख कर आनन्द ले लिया जाता है। यानी धूल झाड़कर मन आनन्दित हो जाता है, कि वाह ! मेरे पास यह पुस्तक भी है, यह भी है और यह भी है।
पुस्तकें , पत्रिकाएं, समाचार-पत्र पढ़ने का समय था वह अब टी.वी. धारावाहिक और पी. सी. में समा गया है।
राजकमल प्रकाशन की भी एक योजना थी, शायद 1975-80 तक मैं उसकी सदस्य रही, पेपर बैक में आधे मूल्य में श्रेष्ठ साहित्यिक पुस्तकें उपलब्ध होती थीं। मात्र बीस रूपये में दो पुस्तकें और वर्ष में एक निःशुल्क पुस्तक भेंट स्वरूप प्राप्त होती थी। उस समय आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के उपन्यास, हिन्दी साहित्य, और न जाने कितने उपन्यास, कहानी-संग्रह और अनेक शब्द कोष मेरे संग्रह का हिस्सा बने। प्रकाशक से निरन्तर नवीन प्रकाशित पुस्तकों की जानकारी भी मिलती रहती थी। फिर कार्यक्षेत्र बदला, पढ़ना-लिखना कम हुआ, जानकारी घटी, सब छूटता चला गया। तीन-चार वर्ष पूर्व मैंने राजकमल प्रकाशन से पुनः सम्पर्क किया कि क्या उनकी अब कोई ऐसी योजना है एवं पुस्तकों की सूची मंगवाई। योजना तो नहीं थी किन्तु पुस्तकों का मूल्य देखकर मैं चकरा गई। वही पुस्तक जो मैंने उस समय हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के उपन्यास जो उस समय मैंने मात्र 10-15-20 रूपये में मंगवाये थे उनका मूल्य 1500 -1800 रूपये तक था। किन्तु यह सोचकर मन आनन्दित हुआ कि मेरे पास उपलब्ध पुस्तकें इतनी मूल्यवान हो चुकी हैं।