क्रोध एक सहज विकार
हम प्रायः देखते हैं कि एक से वातावरण में रहने वाले लोग, एक परिवार के सदस्य, एक ही कार्यालय में कार्य करने वाले लोगों के स्वभाव में ज़मीन-आसमान का अन्तर रहता है। एक ही वातावरण में पले-बढ़े बच्चे भी भिन्न स्वभाव के होते हैं। एक क्रोधी स्वभाव का हो सकता है और दूसरा प्रत्येक स्थिति में शांत, सहनशील। ऐसा क्यों होता है? ं
मैंने यह भी देखा है कि हम जिस वातावरण में रहते हैं, जैसे लोगों के बीच समय व्यतीत करते हैं, हम कितना भी बचने का प्रयास कर लें, हमारे स्वभाव में परिवर्तन दृष्टिगोचर होता ही है। मुझे बहुत बार लगता है कि मानसिक शांति पाना और खोना हमारे हाथ में नहीं रह जाता।
क्रोध एक सहज विकार है। यदि हम अपने साथ होने वाले अन्याय का विरोध नहीं करते और उसे स्वीकार कर लेते हैं तो इससे मन को शांति कैसे मिलेगी।
मैं इस बात से कदापि सहमत नहीं हूं कि सकारात्मक सोच से मन को सदैव शांति मिल सकती है। ऐसा तो नहीं है कि हमारे चारों ओर सकारात्मकता ही है। इतना कुछ है कि उसे शब्द देना कठिन है। कितना भी चाहें हम सदैव सकारात्मक नहीं हो सकते, यह सहज स्वाभाविक है। और यदि हम अपने मन के वास्तविक भाव को मार कर आरोपित शांत होने का प्रयास करेंगे तो निश्चित रूप से ऐसा भाव कभी भी स्थाई शांति प्रदान नहीं कर सकता।
नकारात्मक तथ्य को इग्नोर करने अथवा उपेक्षा करने का अर्थ आज यह है कि हम बुराई को स्वीकृति दे रहे हैं। एक उक्ति है कि आज दुनिया में बुराई इसलिए नहीं बढ़ी है कि बुरे लोग अधिक हो गये हैं, इसलिए बढ़ी है क्योंकि सहने वाले लोग अधिक हो गये हैं। यदि हमारे आस-पास कुछ गलत हो रहा है तो उसकी उपेक्षा करके मन को शांति कैसे मिल सकती है? मन को शांति तो उसका विरोध अथवा निराकरण करके ही मिलेगी।
आज फ़ेसबुक पर ही एक पोस्ट पढ़ने को मिली थी, अमेरिका के किसी शोध का उल्लेख था कि जो महिलाएं अपने पतियों के साथ लड़ती हैं वे दीर्घायु होती हैं और जो तथाकथित सहनशील, शांत होती हैं उनको हृदयाघात अधिक होते हैं। क्योंकि जो लड़ लेती हैं वे अपने मन की भड़ास निकाल लेती हैं और उनके मन को शांति मिलती है किन्तु जो विरोध नहीं करती, मन में रख लेती है, दूसरे शब्दों में भीतर ही भीतर घुटती हैं वे मानसिक संताप में जीवन व्यतीत करती हैं।
मुझे तो यह पोस्ट बहुत ही अच्छी लगी, निश्चित है कि मुझे कभी भी हृदयाघात नहीं हो सकता।
आज तीन दिन बाद ज्वरमुक्त होने पर जब फ़ेसबुक खोली तो आपके इस आलेख ने मेरी दुखती रग पर हाथ रख दिया। हमारे आस-पास ऐसे कुछ शब्द इस तरह बेहिचक प्रयोग किये जाते हैं और हम विरोध भी नहीं कर सकते। रोकने पर, टोकने पर यही सुनने को मिलता है कि तुझे ही ज़्यादा तकलीफ़ होती है, तू ज़्यादा बनती है, तेरे रोकने से कोई बोलना तो बन्द नहीं कर देगा। avoid करना चाहिए। किन्तु मैं क्यों avoid करूं। क्योंकि अधिकांश गालियों में तो महिलाओं से सम्बन्धित शब्द होते हैं, न भी हों तब भी। एक रोचक अनुभव लिखने से नहीं रोक पा रही। कहा जाता है कि उत्तर प्रदेश के लोग बहुत अच्छी हिन्दी बोलते हैंै । किन्तु मेरा अनुभव यह है कि जितनी गालियों का प्रयोग उत्तर प्रदेश के लोग अपनी भाषा में करते हैं, शायद कहीं पर नहीं होता। कुछ समय के लिए मैं बैंक में यू. पी. में थी। पूरी शाखा में मैं अकेली महिलाकर्मी थी। एक महिला की एफ. डी. का भुगतान तकनीकी कारणों से नहीं हो पा रहा था। मैं उसे समझाने का प्रयास कर ही थी, किन्तु वह बैंक के विरूद्ध गालियां जोड़कर बोलती जा रही थी। मैंने उसे रोका, गाली क्यों दे रही हो, कर तो रही हूं तुम्हारा काम। फिर चिल्लाकर वही गाली देते हुए बोली, मैंने किसे दी गाली, कब दी। प्रत्येक वाक्य में वही गाली दो-चार बार। मैं उसे रोकूं, वह बोले मैंने कब दी गाली, मैं शर्मिंदी से परेशान और सारे कर्मचारी हंस-हंसकर आनन्द ले रहे।