अनोखा उपहार
जो लोग सेना से किसी भी रूप से आते हैं उनमें व्यायाम का बहुत रोग होता है। राज का भी यही हाल रहा। प्रातः चार बजे पत्नी को आवाज़ लग जाती, चाय बना। वो कितना ही नाराज़ होती पर राज न सुनते। बस चाय पी और एक्सरसाईज़ शुरू। फिर सैर के लिए निकल जाते। कहीं से एक पुरानी साईकिल ले आये, उस पर घूमते। संध्या समय भी यही रहता। सीमा बहुत चिड़ती कि इन्हें व्यायाम और सैर के अतिरिक्त कुछ सूझता ही नहीं।
समय बीता और ऐसी आदतें धीरे-धीरे कम होने लगीं। साईकिल कहीं कबाड़ में चली गई। बच्चे बड़े हो
गये। मां अक्सर आनन्द ले लेकर बच्चों को पिता के व्यायाम की आदतों के बारे में बताती। उनकी साईकिल के किस्से सुनाती।
घर में सारी सुख-सुविधाएं। बाज़ार के छोटे-छोटे कामों के लिए भी बेटा पैदल न जाने देता, कहता गाड़ी से ही जाओ, अब हमारे पास सुविधा है तो आप पैदल क्यों धक्के खाते हो। पिता के तर्क उसकी समझ में न आते। कभी कहा-सुनी होती कभी कोई किसी की बात मानता, कभी नहीं।
किन्तु राज ने सैर और व्यायाम कभी भी पूरी तरह नहीं छोड़े थे। बच्चों के साथ अक्सर पुराने दिनों को याद करते। राज का जन्मदिन आने वाला था। बच्चे अक्सर अंगूठी, घड़ी अथवा कोई मंहगा सामान उपहार स्वरूप देते थे। राज और सीमा
दोनों ही उत्सुक थे कि इस बार देखते हैं कि क्या उपहार मिलता है।
प्रातः उठते ही बच्चे पापा मम्मी को बाहर लेकर आये। एक खूबसूरत साईकिल खड़ी थी।
ये किसके लिए?
आपके लिए पापा। आप अपनी साईकिल को कितना याद करते थे, मुझे पता है कि आप आज भी साईकिल चलाना चाहते हैं किन्तु कहने में पता नहीं क्यों संकोच करते थे कि अब उमर हो गई कैसे लूं साईकिल, बच्चे क्या कहेंगे, सच कह रहा हूं न। बेटा लाड़ से बोला। सब हंसने लगे। राज बोले, तो अच्छा ! अब तू मेरा बाप बनेगा? चल फिर साईकिल पर घूम कर आते हैं, तू चला मैं पीछे बैठूंगा।