वृक्षों के लिए जगह नहीं
अट्टालिकाओं की दीवारों से
लटकती है
मंहगी हरियाली।
घरों के भीतर
बैठै हैं बोनसाई।
वन-कानन
कहीं दूर खिसक गये हैं।
शहरों की मज़बूती
वृक्षों के लिए जगह नहीं दे पाती।
नदियां उफ़नने लगी हैं।
पहाड़ दरकने लगे हैं।
हरियाली की आस में
बैठा है हाथ में पौध लिए
आम आदमी,
कहां रोपूं इसे
कि अगली पीढ़ी को
ताज़ी हवा,
सुहाना परिवेश दे सकूं।
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मैंने कहा
डर मत,
हवाओं की मशीनें आ गई हैं
लगवा लेगी अगली पीढ़ी।
तू बस अपना सोच।
यही आज की सच्चाई है
कोई माने या न माने