लक्ष्य संधान
पीछे लौटना तो नहीं चाहती
किन्तु कुछ लकीरें
रास्ता रोकती हैं।
कुछ हाथों में
कुछ कदमों के नीचे,
कुछ मेरे शुभचिन्तकों की
उकेरी हुई मेरी राहों में
मेरे मन-मस्तिष्क में
आन्दोलन करती हुईं।
हम ज्यों-ज्यों
बड़े होने लगते हैं
अच्छी लगती हैं
लक्ष्य की लकीरें बढ़ती हुईं।
किन्तु ऐसा क्यों
कि ज्यों-ज्यों लक्ष्यों के
दायरे बढ़ने लगे
राहें सिकुड़ने लगीं,
मंज़िल बंटने लगी
और लकीरें और गहराने लगीं।
फिर पड़ताल करने निकल पड़ती हूँ
आदत से मज़बूर
देखने की कोशिश करती हूँ पलटकर
जो लक्ष्य मैंने चुने थे
वे कहाँ पड़े हैं
जो अपेक्षाएं मुझसे की गईं थीं
मैं कहाँ तक पार पा सकी उनसे।
हम जीवन में
एक लक्ष्य चुनते हैं
किन्तु अपेक्षाओं की
दीवारें बन जाती हैं
और हम खड़े देखते रह जाते हैं।
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कुछ लक्ष्य बड़े गहरे चलते हैं जीवन में।
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अर्जुन ने एक लक्ष्य संधान किया था
चिड़िया की आंख का
और दूसरा किया था
मछली की आंख का
और इन लक्ष्यों से कितने लक्ष्य निकले
जो तीर की तरह
बिखर गये कुरूक्षेत्र में
रक्त-रंजित।
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क्या हमारे, सबके जीवन में
ऐसा ही होता है?