यही ठीक रहेगाः नहीं

 

एक अजीब सी दुविधा में थी वह। दो वर्ष का परिचय प्रगाढ़ सम्बन्ध में बदल चुका था। दोनो एक दूसरे को पसन्द भी करते थे  और दोनों ही परिवारों में विवाह हेतु भी स्वीकृति मिल चुकी थी। एक शालीन सम्बन्ध था दोनों के बीच।

रचना कविता-कहानियां लिखती, पत्रकारिता के क्षेत्र में अपनी एक अच्छी पहचान लिए हुए थी, तीन पुस्तकें भी प्रकाशित हो चुकी थीं और उसका नाम इस क्षेत्र में बड़े सम्मान से लिया जाता था। उसकी अपनी एक अलग पहचान थी और नाम था।

रमन एक बड़ी कम्पनी में उच्चाधिकारी, दोनों ही अपने -अपने कार्य के प्रति आश्वस्त और परस्पर एक-दूसरे के काम का सम्मान भी करते थे।

बात आगे बढ़ी और एक दिन रचना और रमन अपने भावी जीवन की उड़ान की बात करने लगे। रमन ने हंस कर कहा अब दो महीने बाद तो तुम रचना वर्मा नहीं रचना माहेश्वरी के नाम से जानी जाओगी।

रचना एकदम चैंककर बोली, “ क्यों , मेरा नाम क्यों बदलेगा “?

“अरे मैं नाम की नहीं उपनाम की बात कर रहा हूं। विवाहोपरान्त लड़की को अपना उपनाम तो पति का ही रखना पड़ता है, इतना भी नहीं जानती तुम“?

“हां जानती हूं किन्तु किस कानून में लिखा है कि अवश्य ही बदलना पड़ता है।“

“अरे ये तो हमारी परम्पराएं हैं, हमारी संस्कृति है।“

“तुम कब से इतने पारम्परिक और सांस्कृतिक हो गये रमन? और जो मेरी अपनी पहचान है, अपने नाम की पहचान है, इतने वर्षों से मैंने बनाई है उसका क्या“?

“क्या तुम नहीं जानती कि विवाहोपरान्त तो लड़की की पहचान पति से होती है उसके नाम और उपनाम से होती है, विवाहोपरान्त तो तुम्हारी पहचान श्रीमती रमन माहेश्वरी ही होगी या चलो रचना माहेश्वरी, रचना वर्मा को तो तुम्हें भूलना होगा।“

“नहीं , रमन मैं ऐसा नहीं कर सकती, मैं अपने नाम, अपनी पहचान के साथ ही तुम्हारी जीवन-संगिनी बनना चाहती हूं न कि अपना नाम अपनी पहचान खोकर। निश्चित रूप से मेरी पहचान तुम्हारी पत्नी के रूप में तो होगी ही, किन्तु क्या तुम्हारे लिए मेरी व्यक्तिगत पहचान कोई अर्थ नहीं रखती, उसे कैसे खो सकती हूं मैं।“

“रमन का स्पष्ट उत्तर था, अगर मुझसे शादी करनी है तो तुम्हें अब मेरी पहचान, मेरे नाम को ही अपना बनाना होगा, तुम्हारे व्यक्तिगत नाम को मेरे नाम से ही जाना जायेगा, अन्यथा नहीं। “

रचना ने कहा, “हां यही ठीक रहेगाः नहीं“ !!!!!