मेरी वीणा के तारों में ऐसी झंकार

काल की रेखाओं में

सुप्त होकर रह गये थे

मेरे मन के भाव।

दूरियों ने

मन रिक्त कर दिया था

सिक्त कर दिया था

आहत भावनाओं ने।

बसन्त की गुलाबी हवाएँ

उन्मादित नहीं करतीं थीं

न सावन की घटाएँ

पुकारती थीं

न सुनाती थीं प्रेम कथाएँ।

कोई भाव

नहीं आता था मन में

मधुर-मधुर रिमझिम से।

अपने एकान्त में

नहीं सुनना चाहती थी मैं

कोई भी पुकार।

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किन्तु अनायास

मन में कुछ राग बजे

आँखों में झिलमिल भाव खिले

हुई अंगुलियों में सरसराहट

हृदय प्रकम्पित हुआ,

सुर-साज सजे।

तो क्या

वह लौट आया मेरे जीवन में

जिसे भूल चुकी थी मैं

और कौन देता

मेरी वीणा के तारों में

ऐसी झंकार।