नई-नई हसरतों की लपटें
वे बिन बुलाये हमारे घर आये। जब भी आते थे पुलिस की तरह बिन बुलाये ही दनदनाते ही आते थे। तरह-तरह की जांच-पड़ताल करते, हमें हमारे ही घर में कटघरे में खड़ा करते और भविष्य में सुधर जाने की चेतावनी देकर चले जाते। उनके पिछले पद-चिन्हों की छाप अभी मिटती भी न थी कि फिर चले आते।
इस बार भी आये। दल-बल सहित। हमने मुस्कुराकर, हाथ जोड़कर स्वागत किया वैसे ही जैसे करना चाहिए। वे जल्दी से भीतर आये और बैठने के लिए जगह ढूंढने लगे। हमने अपने दीवान और कुर्सियों की ओर संकेत किया - बैठिए। उन्होंने पूरे कमरे का निरीक्षण करते हुए हमारे दीवान और कुर्सियों की शोभा बढ़ाई।
‘‘क्यों भाभीजी, अभी वही पुराने ज़माने के दीवान, कुर्सियां चल रही हैं। कुछ नया क्यों नहीं लेते ?’’
‘‘ नया क्यों लें अभी, इतना पुराना भी नहीं है, और देखिए तो, ज़रा भी खराब भी नहीं हुआ है।’’
‘‘आप भी भाभीजी, कौन रखता है आजकल दीवान और कुर्सियां। इन्हें हटाकर बढ़िया सोफ़े-वोफ़े लीजिए न। एक-से-एक हैं मार्किट में। और वैसे भी आपको किस बात की कमी है।’’
‘‘लेकिन इनका क्या करेंगे ?’’
‘‘अरे ! बिक जायेंगे, नहीं तो कबाड़ में डालिए।’’
मैंने अपने पांच हज़ार के दीवान और दो-दो हज़ार की कुर्सियों को कबाड़ की दृष्टि से देखने का प्रयास किया।
‘‘अरे हां, आप अभी भी किराये के मकान में बैठे हैं। अपना नहीं बनाया अभी तक। आपको किस बात की कमी है, आप तो बैंक में हैं। पंद्रह-बीस हज़ार तो वेतन मिलता ही होगा। उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना उनका प्रवचन जारी था ‘‘भाई साहिब का तो बिजनेस है। बिजनेस वालों को किस बात की कमी है। सब दो नंबर का काम है। क्यों भाई साहिब।’’
भाई साहब ‘‘हें हें’’ करके चुप हो गये।
अब बच्चों की बारी। कौन से स्कूल में पढ़ते हो?
‘‘हां भाई , मंहगे से मंहगे स्कूल में पढ़ा सकते हैं आप तो, आपको किस बात की कमी है।
‘‘अच्छा स्कूल अपन गाड़ी से जाते हो ?’’
‘‘नहीं आंटी साईकिल से।’’
उन्होंने बच्चों को बड़ी दयनीय दृष्टि से देखा। ‘‘क्या भाभी जी, आपके इतने बड़े-बड़े बच्चे साईकिल घसीट रहे हैं। क्या करेंगे इतना जोड़कर। बच्चों को स्कूटर वगैरह लेकर दीजिए तो।’’
‘‘अभी 18 वर्ष के भी नहीं, गाड़ी कैसे लें दें।’’
‘‘क्या भाभजी आप भी। कौन परवाह करता है आजकल, ये तो पैसे न खर्चने के बहाने हैं। कहां ले जायेंगे इतना जोड़कर,किसके लिए जमा कर रहे हैं, आपको किस बात की कमी है,जो बच्चों के लिए इतना कंजूसी।’’
‘‘आपको किस बात की कमी है’’
विषय बदलने का प्रयास करते हुए मैंने पूछा ‘‘अच्छा बताईये, चाय लेंगे या ठंडा?’’
‘‘भई हम तो ठंडा ही लेंगे। जबसे ये ड्रंक मेकर चले हैं, हमें तो पानी की जगह भी कोल्ड ही पीने की आदत हो गई है। किस कंपनी का है आपके पास?’’
‘‘जी ड्रंक मेकर नहीं है, कोल्ड ड्रंक है, कौन-सी लेंगे?’’
‘‘ क्या ????? इतनी छोटी-सस्ती-सी चीज़ भी नहीं रखी आपने। क्या करेंगी इतने पैसे जोड़कर।’’
इतनी देर में उनके बच्चे हमारे घर का निरीक्षण करके रिपोर्ट कार्ड अपने माता-पिता को सौंप रहे थे।
‘‘आंटी आपका टी.वी. ब्लैक एंड वाईट है क्या ?’’
वे कुछ और पूछते मैंने पहले ही कह दिया ‘‘ हां, बेटा , हमारा टी. वी. ब्लैक एंड वाईट है, बिना रिमोट का । वी.सी.आर. , सी.डी. प्लेयर भी नहीं है।’’
उन सबने हमारे परिवार की ओर अत्यन्त दयनीय दृष्टि से देखा । फिर तरस खाते हुए बोलीं, ‘‘ आप तो बैंक में हैं। ऐसा सामान खरीदने के लिए तो बैंक वालों को खूब लोन-वोन मिलते हैं। नहीं तो बाज़ार मे ही आजकल सब कुछ किश्तों में मिलता है। इतनी एक्सचेंज आफ़र हैं बाज़ार में। । आपकी तो 18-20 वर्ष की नौकरी हो गई। मकान के लिए, टी.वी., फ्रिज, स्कूटर, कार, फ़र्नीचर, कम्प्यूटर, सबके लिए आप लोगों को तो बैंक मज़े से घर बैठे पैसा देता है। और आजकल तो बैंक वाले भी लोनों-वोनों में खूब कमाने लगे हैं। फिर आपको किस बात की कमी है जो ऐसे रह रहे हैं।’’
इसके बाद वे दो घंटे और बैठे। इस बीच उन्होंने ‘‘आपको किस बात की कमी है’’, ‘‘क्या करेंगे इतना जोड़कर’’, ‘‘बच्चों के लिए ही तो कमाते हैं हम’’, ‘‘किसके लिए जोड़ रहे हैं इतना’’, और ‘‘बेचारे बच्चे’’ कितनी बार कहा, मैं गिन न सकी।
फिर वे चले गये।
उनके पास न माचिस थी न लाईटर। न पैट््रोल न डीज़ल।
पर वे मेरे घर में आग लगा गये।
यह आग न पानी से बुझ सकती थी न किसी अन्य पदार्थ से।
हमने जल्दी ही बैंक से ढेर सारे ऋण ले लिए। कुछ वस्तुए बाज़ार से किश्तों पर ले लीं। अपना आधा वेतन और पूरा सेवाकाल बैंक के पास बंधक रख दिया। हमारा आधा घर आधुनिक हो गया और आधा घर कबाड़।
लेकिन आग अभी भी नहीं बुझी।
नई-नई हसरतों की लपटें रोज़ उठती हैं।