तीन शब्द
ज़िन्दगियां
कुछ शब्दों में बंधकर
रह जाती हैं,
बंधक बन जाती हैं,
फिर वे तीन हो
या तेरह
कोई फ़र्क नहीं पड़ता।
बात कानून की नहीं
मन की है, और शायद सोच की।
कानून
कहां-कहां, किस-किसके
घर जायेगा
देखने के लिए
कि कुछ और शब्दों से
या फिर बिना शब्दों के भी
आहत होती हैं, घातक होती हैं।
परदे
आज भी पड़े हैं
चेहरों पर, सोच पर, नज़र पर
कब उतरेंगे, कैसे उतरेंगे
कितनी सदियां लग जाती हैं,
केवल एक भाव बदलने के लिए।
और जब तक वह बदलता है
टूटता है,
कुछ नया जुड़ जाता है
और हमें फिर खड़ा होना पड़ता है
एक नई लड़ाई के लिए
सदियों-सदियों तक।