घन-घन-घन घनघोर घटाएं
घन-घन-घन घनघोर घटाएं,
लहर-लहर लहरातीं।
कुछ बूंदें बहकीं,
बरस-बरस कर,
मन सरस-सरस कर,
हुलस-हुलस कर,
हर्षित कर
लौट-लौटकर आतीं।
बूंदों का सागर बिखरा ।
कड़क-कड़क, दमक-दमक,
चपल-चंचला दामिनी दमकाती।
मन आशंकित।
देखो, झांक-झांककर,
कभी रंग बदलतीं,
कभी संग बदलतीं।
इधर-उधर घूम-घूमकर
मारूत संग
धरा-गगन पर छा जातीं।
रवि ने मौका ताना,
सतरंगी आकाश बुना ।
निरख-निरख कर
कण-कण को
नेह-नीर से दुलराती।
ठिठकी-ठिठकी-सी शीत-लहर
फ़र्र-फ़र्र करती दौड़ गई।
सर्र-सर्र-सर्र कुछ पत्ते झरते
डाली पर नव-संदेश खिले
रंगों से धरती महक उठी।
पेड़ों के झुरमुट में बैठी चिड़िया
की किलकारी से नभ गूंज उठा
मानों बोली, उठ देख ज़रा
कौन आया ! बसन्त आया!!!