किससे बात करुं मैं
चारों ओर खलबली है।
समाचारों में सनसनी है।
सड़कों पर हंगामा है।
आन्दोलन-उपद्रव चल रहे हैं
और हम
सास-बहू के मुद्दों पर लिख रहे हैं।
गढ़े मुर्दे उखाड़ रहे हैं।
पुरानी सीवनें उधेड़ रहे हैं।
खिड़की से बाहर का अंधेरा नहीं दिखता
दूर देश में रोशनियां खोज रहे हैं।
हज़ार साल पुरानी बातों का
पिष्ट-पेषण करने में लगे हैं,
और अपने घर में लगी आग से
हाथ सेंकने में लगे हैं।
और यदि और कुछ न हो पाये
तो हमारे पास
ऊपर वाले बहुत हैं,
उनका नाम जपकर
मुंह ढककर सो रहे हैं।
कितना भी मुंह मोड़ लें,
हाथों को जोड़ लें,
शोर को रोक लें,
कानों में रुईं ठूंस लें,
किसी दिन तो
अपने घाव भी रिसेंगे ही।
वैसे भी मुंह मोड़ने
या छुपाने से
कान बन्द नहीं होते,
बस मुंह चुराते हैं हम।
सच लिखने से घबराते हैं हम।
और यदि
औन कुछ न दिखे
तो करताल बजाते हैं हम।
खड़ताल खड़काते हैं हम।
रोज़, हर रोज़
बेवजह
मरने वालों का
हिसाब नहीं मांगती मैं।
किन्तु हमारे भाव मर रहे हैं,
सोच मर रही है,
बेबाक बोलने की आवाज़ डर रही है।
किससे बात करुं मैं ?