एकाकी हो गये हैं
अकारण
ही सोचते रहना ठीक नहीं होता
किन्तु खाली दिमाग़ करे भी तो क्या करे।
किसी के फ़टे में टाँग अड़ाने के
दिन तो अब चले गये
अपनी ही ढपली बजाने में लगे रहते हैं।
समय ने
ऐसी चाल बदली
कि सब
अपने अन्दर तो अन्दर
बाहर भी एकाकी हो गये हैं।
शाम को काॅफ़ी हाउस में
या माॅल रोड पर
कंधे से कंधे टकराती भीड़
सब कहीं खो गई है।
पान की दुकान की
खिलखिलाहटें
गोलगप्पे-टिक्की पर
मिर्च से सीं-सीं करती आवाजे़ं
सिर से सिर जोड़कर
खुसुर-पुसुर करती आवाजे़ं
सब कहीं गुम हो गई हैं।
सड़क किनारे
गप्पबाजी करते,
पार्क में खेलते बच्चों के समूह
नहीं दिखते अब।
बन्दर का नाच, भालू का खेल
या रस्सी पर चलती लड़की
अब आते ही नहीं ये सब
जिनका कौशल देखने के लिए
सड़कों पर
जमघट लगते थे कभी।
अब तो बस
दो ही दल बचे हैं
जो अब भी चल रहे हैं
एक तो टिड्डी दल
और दूसरे केवल दल
यानी दलदल।
ज़रा सम्हल के।