अब शब्दों के अर्थ व्यर्थ हो गये हैं

शब्दकोष में अब शब्दों के अर्थ

व्यर्थ हो गये हैं।

हर शब्द 

एक नई अभिव्यक्ति लेकर आया है।

जब कोई कहना है अब चारों ओर शांति है

तो मन डरता है

कोई उपद्रव हुआ होगा, कोई दंगा या मारपीट।

और जब समाचार गूंजता है

पुलिस गश्त कर रही है, स्थिति नियन्त्रण में है

तो स्पष्ट जान जाते हैं हम

कि बाहर कर्फ्यू है, कुछ घर जले हैं

कुछ लोग मरे हैं, सड़कों पर  घायल पड़े हैं।

शायद, सेना का फ्लैग मार्च हुआ होगा

और हमें अब अपने आपको

घर में बन्द करना होगा ।

अहिंसा के उद्घोष से

घटित हिंसा का बोध होता है।

26 जनवरी, 15 अगस्त जैसे दिन

और बुद्ध, नानक, कबीर, गांधी, महावीर के नाम पर

मात्र एक अवकाश का एहसास होता है

न कि किसी की स्मृति, ज्ञान, शिक्षा, बलिदान का।

धर्म-जाति, धर्मनिरप्रेक्षता, असाम्प्रदायिकता,

सद्भाव, मानवता, समानता, मिलन-समारोह

जैसे शब्द डराते हैं अब।

वहीं, आरोपी, अपराधी, लुटेरे,

स्कैम, घोटाले जैसे शब्द

अब बेमानी हो गये हैं

जो हमें न डराते हैं, और न ही झिंझोड़ते हैं।

“वन्दे मातरम्” अथवा “भारत माता की जय”

के उद्घोष से हमारे भीतर

देश-भक्ति की लहर नहीं दौड़ती

अपितु अपने आस-पास

किसी दल का एहसास खटकता है

और प्राचीन भारतीय योग पद्धति के नाम पर

हमारा मन गर्वोन्नत नहीं होता

अपितु एक अर्धनग्न पुरूष गेरूआ कपड़ा ओढ़े

घनी दाढ़ी और बालों के साथ

कूदता-फांदता दिखाई देता है

जिसने कभी महिला वस्त्र धारण कर

पलायन किया था।

कोई मुझे “बहनजी” पुकारता है

तो मायावती होने का एहसास होता है

और “पप्पू” का अर्थ तो आप जानते ही हैं।

 

कुछ ज़्यादा तो नहीं हो गया।

कहीं आप उब तो नहीं गये

चलो आज यहीं समाप्त करती हूं

बदले अर्थों वाले शब्दकोष के कुछ नये शब्द लेकर

फिर कभी आउंगी

अभी आप इन्हें तो आत्मसात कर लें

और अन्त में, मैं अब

बुद्धिजीवी, साहित्यकार, कलाकार और

सम्मान शब्‍दों   के

नये अर्थों की खोज करने जा रही हूं।

ज्ञात होते ही आपसे फिर मिलूंगी

या फिर उनमें जा मिलूंगी

फिर कहां मिलूंगी ।।।।।।।