आप्त वाक्य
कभी-कभी आप्त वाक्य
बड़े कष्टकारी होते हैं।
जीवन में हम चाहते कुछ हैं,
मिलता कुछ है।
किसी ने कह दिया
जहां चाह, वहां राह।
काश!
कि ऐसा ही होता जीवन में।
चाह तो थी
चांद-सितारों की,
मां ने चुनरी पर टांक दिये।
और मैं
ओढ़नी सिर पर लिए
आकाश में उड़ने लगी।
ऐसे ही हैं हम
वर्तमान में
सम्भ्रान्त होने के लिए
भद्र अथवा शिष्ट बनने के लिए
नहीं चाहिए मधुर वाणी
सरल स्वभाव
विनम्रता अथवा कोमल भाव।
बस चाहिए
बड़ा-सा मोबाईल
टिप-टाप अन्दाज
आधुनिकतम् ऐसी वेशभूषा
जिसका कोई नाम न हो।
टूटी-फूटी अंग्रेज़ी के साथ
कुछ स्लैंग्स,
वीडियो, यूट्यूब, रील्स,
इंस्टा की निरर्थक वार्ता।
तब आपकी वाणी
आपका स्वभाव
सब उपेक्षणीय हो जायेगा
बोलें आप कितना भी अभद्र
कितना अशिष्ट
सब क्षम्य हो जायेगा।
अपनी खुशियों को संभालकर रखा कीजिए
अपनी संवेदनाओं को
अपनी नाराज़गियों को
अपनी खुशियों को
संभालकर रखा कीजिए,
बस अपने भीतर
पचाकर रखिए।
किसी अतिथि आगमन पर
डाईनिंग टेबल पर
डोंगों में, प्लेट में
कांटे-छुरी के साथ
मत परोस दीजिए,
खाएंगे, पीयेंगे,
मोटी-सी डकार लेंगे
और सारी दुनिया में
कसैली हवा भर देंगे।
ऐसी ही है ज़िन्दगी
पौधे भी बड़े अजीब हुआ करते हैं
कुछ सदाबहार
कुछ मौसमी और कुछ
अपने मन से जिया करते हैं।
जब चाहा खिल जाते हैं
जब चाहा मुॅंह छुपाकर
बैठ जाते हैं।
किसी को
प्रतिदिन, ढेर-सा पानी चाहिए
कोई बंजर-सी भूमि में ही
खिल-खिल जाते हैं।
कई बिना फूलों के ही
मुस्कुरा-मुस्कुराकर
दिल मोह ले जाते हैं।
कोई
दिन की चाहत लिए खिलता है
और कोई
रात में गुनगुनाहट बिखेरता है
कहीं झर-झर-झरते पल्ल्व
रंग-बिरंगी दुनिया
सजा जाते हैं।
कहीं ज़रा-सा बीज बोते ही
आकाश छू जाते हैं
और कई सालों-साल लगा देते हैं।
धरा का मोह छूटता नहीं
गगन की आस छोड़ता नहीं।
ऐसी ही है ज़िन्दगी।
मन की बात
रातों को
महसूस किया है कभी आपने।
कितनी भी रोशनी कर लें
कभी-कभी
अंधेरा टूटता ही नहीं।
रातें अंधेरी ही होती हैं
फिर भी
न जाने क्यों
बार-बार कह बैठते हैं
कितनी अंधेरी होती हैं रातें।
शायद हम
रात की बात नहीं करते
अपने मन की बात करते हैं।
क्या अन्त यही है
टूटा तो नहीं है
डाल से छूटकर भी
बिखरा तो नहीं है
धरा पर
ठहरा-सा लगता है
मानों सोच रहा हो
क्या यही जीवन है
लौट सकता नहीं,
जीवन से जुड़ सकता नहीं
क्या अन्त यही है
हाईकु: धारा
धारा निर्बाध
भावों में हलचल
आंखों में पानी
-
अविरल है
धारा की तरलता
भाव क्यों रूखे
-
धारा निश्छल
चंदा की परछाईं
मन बहके
अच्छा लगता है भूलना
ज़िन्दगी
कोई छपी हुई
चित्र-कथा तो नहीं
कि जब चाहा
स्मृतियों के पृष्ठ
उलट-पुलट लिए
और पढ़ते रहे
अगला-पिछला।
समस्या यह
कि जो भूलना चाहते हैं
वह तो
स्मृति-पटल पर
पत्थरों पर कुरेदी गई
लिपि-सा रह जाता है
और जो याद रहना चाहिए
वह रेत पर फैले शब्दों-सा
बिखर-बिखर जाता है।
लेकिन फिर भी
अच्छा लगता है भूलना
ज़िन्दगी मे बहुत कुछ,
चाहे सारी दुनिया कहे
बुढ़ा गये हैं ये
इन्हें
अब कुछ याद नहीं रहता।
खुशियाॅं समेट लें ज़रा
झरझर झरता पानी, चल भीग लें ज़रा
फूलों की मदमाती डालियाॅं देख लें ज़रा
गगन से धरा तक हवाओं को परख लें ज़रा
रंगीन है ये दुनिया, खुशियाॅं समेट लें ज़रा
चिड़िया नारी
चिड़िया नारी तुम मुझको उड़ना सिखलाना
फिर मुझसे लेकर रोटी-दाना-पानी खाना
दोनों मिलकर खायेंगे, खूब मौज उड़ायेंगे
फिर मैं अपने घर, तुम अपने घर जाना
खोजता है मन
रोशनियों के पीछे भागता है मन
छोटी चाहतों को खोजता है मन
अंधेरे की आहटों से डरता है मन
जुगनुओं सी चमक ढूंढता है मन
छोटे-छोटे मतभेदों पर
गाल सुजाये बैठे हैं, मुंह फुलाए बैठै हैं
छोटी-छोटी बातों पर होंठ दबाए बैठे हैं
छोटे-छोटे मतभेदों पर ऐसे कोई करता है
फूली जली रोटी-से आंख चढ़ाए बैठे हैं
भूल हुई कहाॅं थी
रुखसत क्या हुए ज़िन्दगी से, सब भूल-भुलैया हो गई
सीधे चलते-चलते ज़िन्दगी टेढ़े-मेढ़े मोड़ों में खो गई
समझ पाये नहीं, समझा सकते नहीं, भूल हुई कहाॅं थी
बदल गईं हाथों की लकीरें, किस्मत मानों सो गई।
नयानाभिराम रूप रघुराई
राम-लखन संग-संग चले, अयोध्या नगरी मुस्काई
दीपों की आभा से आलोकित सब जन-मन हरषाई
हर मन में उल्लास है, मधुर गान से नभ गूंज रहा
गगन-धरा सब निरख रहे, नयानाभिराम रूप रघुराई
प्रदर्शन का दर्शनn
पर्व अब प्रदर्शन बनकर रह गये हैं
प्रदर्शन का दर्शन बनकर रह गये हैं
उपहारों का लेन-देन प्रथा बन गई
बाज़ारीकरण में रिश्ते कहाॅं रह गये हैं
फ़ागुन की आहट
फ़ागुन की आहट
मानों जीवन में
मधुर सी गुनगुनाहट
हवाओं में फूलों की महक
नव-पल्लव अंकुरित
वृक्षों की शाखाओं से
पंछियों की
मधुर कलरव
पत्तों की मरमर
तृण मानों
ओस की बूंदों से
कर रहे शरारत।
भीगा-भीगा-सा मौसम
कभी धूप कभी छांव
कहता है
ले ले आनन्द
पता नहीं
फिर कब मिलेगा यह जीवन।
खुशियों का आभास देती
हरे-हरे पल्लव कब पीत हुए, कब झर गये
नव-पल्लव अंकुरित हुए, चकित मुझे कर गये
खुशियों का आभास देती खिलीं पुष्पांजलियाॅं
फूलों की पंखुरियों ने रंग लिखे, मन भर गये
शक्ति-स्वरूपा
दिव्य आलोकित रूप तुम्हारा मन हर्षित करता है
हाथों में त्रिशूल देखकर मन में साहस भरता है
भोली-सी मुस्कान तुम्हारी आशीष की भांति लगती है
शक्ति-स्वरूपा हो तुम, अरि भी तुमसे डरता है।
सुहाना दिन
भोर की रंगीनीयाॅं मदमाती हैं
सूर्य रश्मियाॅं मन भरमाती हैं
सुहाना दिन आया जीवन में
भावों की कलियाॅं शरमाती हैं
कोई नहीं अपना
काफ़िलों में हम चले, लगा कोई सहारा मिला
राहों में कौन छूट गया, कौन अलग हो चला
देखते-देखते ही बिखराव की एक आंधी आई
अपना रहा न कोई पराया, विलग हो ही भला
नई शुरुआत
चल आज एक नई भोर से शुरुआत करें
चाय पीयें, कुछ आनन्द के पल फिर जियें
कल की मधुर स्मृतियाॅं आनन्द देती हैं
प्रकाश की किरणों से जीवन में नवरस भरें
चित्राधारित कथा
आज सबके पास घड़े और बाल्टियां तो थीं किन्तु खाली थीं। धूप और सूखी धरती पर चलते-चलते उनके पांव थक गये थे। गांव में एक ही कुंआ था आम लोगों के लिए और गर्मी आते ही पानी की कमी होने लगती थी और दूसरे कुंए और नहर के पानी पर उनका अधिकार नहीं था। आज कुंए से पानी खिंचा ही नहीं। सभी महिलाएं उदास थीं। कैसे खाना बनायेंगे, बच्चों को क्या खिलाएंगे।
उन्होंने मिलकर तय किया कि वे सरपंच से जाकर मिलेंगी और जब तक उन्हें नहर के पानी और दूसरे कुंए से पानी नहीं लेने दिया जाता वे घर ही नही जायेंगी।
गांव की सभी महिलाएं बच्चों के साथ जाकर सरपंच के घर के सामने बैठ गईं। पंचों ने और गांव के लोगों ने उन्हें समझाने का बहुत प्रयास किया किन्तु वे न मानीं। वे सब बोलीं कि जब उनके पास कुछ खाने-पीने के लिए ही नहीं है तो वे घर जाकर क्या करेंगीं। जब तक उनको नहर से या दूसरे कुंएं से पानी नहीं लेने दिया जायेगा, वे घर नहीं जायेंगी।
यह समाचार धीरे-धीरे सारे गांव में फैल गया और अन्य घरों की महिलाएं और बच्चे भी वहां आने लगे। भीड़ बढ़ती देख सरपंच ने पुलिस बुलाने का निर्णय लिया। किन्तु इससे पहले कि वे पुलिस बुलाते, सरपंच की पत्नी और बच्चे उनके सामने आ खड़े हुए। पत्नी ने कहा कि आप सोचिए कि अगर हमें एक दिन भी पानी न मिले तो हम क्या करेंगे। और ये लोग तो हर रोज़ कितनी दूर से पानी लाते हैं। मैंने इन महिलाओं और बच्चों को दिन में इतनी धूप और कड़ी गर्मी में दो-दो, तीन-तीन चक्कर लगाते देखा है। कैसे कर लेती हैं ये इतनी मेहनत। फिर घर जाकर घर के सारे काम करती हैं। आप कुछ तो इन पर दया कीजिए और अपना कुंआ इनके लिए खोल दीजिए।
सरपंच की मानों आंखें खुल गईं , इस तरह तो उन्होंने कभी सोचा ही नहीं था। उन्होंने तत्काल अपने कुंए से सारे गांव को पानी भरने की अनुमति दे दी और साथ ही पंचों के साथ मिलकर निर्णय लिया कि वे अपने गांव की पानी की समस्या को सदा के लिए हल करने के लिए नीतियां बनायेंगें।
नये साल में
नये साल में कुछ नई बात करें
पिछला भूल, नये पथ पर बढ़ें
जीवन खुशियों का सागर है
मोती चुन लें, कंकड़ छोड़ चलें
ज़िन्दगी की लम्बी राहों में
साथ कोई
उम्र-भर देता नहीं है
जानते हैं हम, फिर भी
मन को मनाते नहीं हैं।
मुड़-मुड़कर देखते रहते हैं
जाने वालों को हम
भुला पाते नहीं हैं।
ज़िन्दगी की लम्बी राहों में
न जाने कितने छूट गये
कितने हमें भूल गये
याद अब कर पाते नहीं हैं।
फिर भी इक टीस-सी अक्सर
दिल में उभरती रहती है
जिसे हम नकार पाते नहीं हैं।
जीवन के राज़
जिन्हें हम जीवन में
राज़ बनाये रखना चाहते हैं
वे ही सबसे ज़्यादा
चर्चित विषय रहते हैं।
मेरा सुख-दुख
मेरी पसन्द-नापसन्द
मेरी चिन्ताएॅं, मेरी अर्हताएॅं,
मेरी विवशताएॅं,
कहाॅं रह पाती हैं मेरी।
न जाने कैसे
मेरे अन्तर्मन से निकलकर
सारे जहाॅं में
चर्चा का विषय बन जाते हैं।
डरती नहीं
पर विश्वस्त भी नहीं रह पाती,
इस कारण
अपनी बात
अपने-आप से ही
नहीं कर पाती।
आसमान में छेद
पता नहीं कौन शायर कह गया
आसमां में छेद क्यों नहीं हो सकता
एक पत्थर तो तबीयत से उछाला होता यारो ।
पता नहीं किस युग का था वह शायर।
उछालकर देखा था क्या उसने कभी पत्थर।
बड़ा काम तो हम ज़िन्दगी में
कभी कर नहीं पाये
सोचा, चलो आज कुछ नया करते हैं
उस शायर की इच्छा पूरी करते हैं।
एक क्यों,
तबीयत से कई पत्थर उछालते हैं,
आसमान में एक नहीं
अनेक छेद करते हैं।
पर शायद
युग बदल गया था
या हमें
पत्थर उछालने का
तरीका पता नहीं था
हमने तो अभी बस
एक ही पत्थर उठाया था
उछालने की नौबत भी नहीं आई थी
सैंकड़ों पत्थर लौट आये हमारे पास।
लगता है
उस शायर का शेर
सबने पसन्द कर लिया है
और हमारी तरह
सभी पत्थर उछालने में लगे हैं
और हम तो
अपना ही सिर फोड़ने में लगे हैं।
चेहरे बदल लें
चलो आज चेहरे बदल लें।
बहुत दिन बीत गये।
लोग अब
हमारी
असलियत
पहचानने लगे हैं
हमें
बहुत अच्छे से
जानने लगे हैं।
खरपतवार
वही फ़सल काटते हैं
जो हम बोते हैं,
ऐसा नहीं होता यारो।
जीवन में
खरपतवार का भी
कोई महत्व है
या नहीं।
अपनी-अपनी कयामत
किसी दिन।
आसमान टूट पड़े
धरती हिल जाये
सागर उफ़न पड़े
दुनिया डूबने लगे
शायद
इसे ही कहते हैं न कयामत।
नहीं रे !!
सबकी ज़िन्दगी की
अपनी-अपनी कयामत भी होती है।
न आसमान गिरता है
न धरा फ़टती है
न सागर सूखता है
फिर भी
आ जाती है कयामत।
कोई एक बात,
कोई एक शब्द, एक चुटकी,
एक कसक,
कोई नाराज़गी,
कुछ दूरियाॅं
कोई मन-मुटाव,
आॅंख-भर का इशारा
और हो जाती है कयामत।
नहले पे दहला
तू
नहले पे दहला
लगाना सीख ले
नहीं तो
गुलाम
बनकर
रह जायेगा