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अब तो कुछ बोलना सीख

आग दिल में जलाकर रख

अच्छे बुरे का भाव परख कर रख।

न सुन किसी की बात को

अपने मन से जाँच-परख कर रख।

कब समझ पायेंगें हम!!

किसी और के घर में लगी

आग की चिंगारी

जब हवा लेती है

तो हमारे घर भी जलाकर जाती है।

तब

दिलों के भाव जलते हैं

अपनों के अरमान झुलसते हैं

पहचान मिटती है,

जिन्दगियां बिखरती हैं

धरा बिलखती है।

गगन सवाल पूछता है।

इसीलिए कहती हूँ

न मौन रह

अब तो कुछ बोलना सीख।

अपने हाथ आग में डालना सीख

आग परख। हाथ जला।

कुछ साहस कर, अपने मन से चल।

 

 

चिड़िया नारी

चिड़िया नारी तुम मुझको उड़ना सिखलाना

फिर मुझसे लेकर रोटी-दाना-पानी खाना

दोनों मिलकर खायेंगे, खूब मौज उड़ायेंगे

फिर मैं अपने घर, तुम अपने घर जाना

अन्तस में हैं सारी बातें

पन्नों पर लिखी हैं मन की वे सारी गाथाएं

जो दुनिया तो  जाने थी पर मन था छुपाए

पर इन फूलों के अन्तस में हैं वे सारी बातें

न कभी हम उन्हें बताएं न वो हमें जताएं

मन से अब भी बच्चे हैं

हाव-भाव भी अच्छे हैं

मन के भी हम सच्चे हैं

सूरत पर तो जाना मत

मन से अब भी बच्चे हैं

ढोल की थाप पर

संगीत के स्वरों में कुछ रंग ढलते हैं

मनमीत के संग जीवन के पल संवरते हैं

ढोल की थाप पर तो नाचती है दुनिया

हम आनन्द के कुछ पल सृजित करते हैं।

 

वक्त की रफ्तार देख कर

वक्त की रफ्तार देख कर
मैंने कहा, ठहर ज़रा,
साथ चलना है मुझे तुम्हारे।
वक्त, ऐसा ठहरा
कि चलना ही भूल गया।

आज इस मोड़ पर समझ आया,
वक्त किसी के साथ नहीं चलता।
वक्त ने बहुत आवाज़ें दी थीं,
बहुत बार चेताया था मुझे,
द्वार खटखटाया था मेरा,
किन्तु न जाने
किस गुरूर में था मेरा मन,
हवा का झोंका समझ कर
उपेक्षा करती रही।

वक्त के साथ नहीं चल पाते हम।
बस हर वक्त
किसी न किसी वक्त को कोसते हैं।
एक भी
ईमानदार कोशिश नहीं करते,
अपने वक्त को,
अपने सही वक्त को पहचानने की ।

निंदक नियरे राखिये

निंदक नियरे राखिये आँगन कुटी छवाय 
बिन पानी साबुन बिना निर्मल होत सुभाय ..

उक्त दोहे की सप्रसंग व्याख्या

******************

यह बात सम्भवत: पन्द्रहवीं-सोहलवीं शती की है जब हमें निन्दक की तलाश हुआ करती थी। उस काल में निन्दक की नियुक्ति के क्या नियम थे नहीं ज्ञात। कहा जाता है कि राजा लोग अपने दरबार में निन्दक नियुक्त करते होंगे।  आम जनता कहां निन्दक रख पाती होगी।

विचारणीय यह कि उस काल में वर्तमान की भांति रोज़गार कार्यालय नहीं हुआ करते थे। समाचार पत्र, दूरभाष, मोबाईल भी नहीं थे कि विज्ञापन दिया, अथवा एक नम्बर घुमाया और  साक्षात्कार के लिये बुला लिया। फिर कैसे निन्दक नियरे रखते होंगे, कैसे ढूंढते होंगे एक अच्छा निन्दक, यही अनुसंधान का विषय है। कोई डिग्रीकोर्स का भी युग नहीं था फिर निन्दक के लिए क्या और  कैसे मानदण्ड निर्धारित किये जाते होंगे। लिखित परीक्षा होती होगी अथवा केवल साक्षात्कार ही लिया जाता होगा। चिन्तित हूं, सोच-सोचकर इस सबके बारे में जबसे उक्त दोहा पढ़ा है।

किन्तु यह बात तथ्यपूर्वक कही जा सकती है कि यह दोहा मध्यकाल का नहीं है। कपोल-कल्पित कथाओं के अनुसार इस दोहे को मध्यकाल के भक्ति काल के किन्हीं कबीर दास द्वारा रचित दोहा बताया गया है। वैज्ञानिक एवं गहन अनुसंधान द्वारा यह तथ्य प्रमाणित है कि भक्ति काल में साबुन का आविष्कार नहीं हुआ था। और  यदि था तो कौन सा साबुन बिना पानी के प्रयोग किया जाता होगा। 

अब इसे वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखते हैं।

आधुनिक काल में इस पद की कोई आवश्यकता ही नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति के भीतर एक सजग निन्दक है, जिसे पानी, साबुन की भी आवश्यकता नहीं है। एक ढूंढो, हज़ार मिलते हैं।

इसी अवसर पर हम अपने भीतर झांकते हैं।

निष्कर्ष :

इस कारण यह दोहा प्राचीन एवं अवार्चीन दोनों ही कालों में अर्थहीन, महत्वहीन है।

हाथ पर रखें लौ को

रोशनी के लिए दीप प्रज्वलित करते हैं

फिर दीप तले अंधेरे की बात करते हैं

तो हिम्मत करें, हाथ पर रखें लौ को

जो जग से तम मिटाने की बात करते है

सीता की व्यथा

कौन समझ पाया है

सीता के दर्द को।

उर्मिला का दर्द

तो कवियों ने जी लिया

किन्तु सिया का दर्द

बस सिया ने ही जाना।

धरा से जन्मी

धरा में समाई सीता।

क्या नियति रही मेरी

ज़रूर सोचा करती होगी सीता

.

किसे मिला था श्राप,

और किसे मिला था वरदान,

माध्यम कौन बना,

किसके हाथों

किसकी मुक्ति तय की थी विधाता ने

और किसे बनाया था माध्यम

ज़रूर सोचा करती होगी सीता

.

क्या रावण के वध का

और कोई मार्ग नहीं मिला

विधाता को

जो उसे ही बलि बनाया।

एक महारानी की

स्वर्ण हिरण की लालसा

क्या इतना बड़ा अपराध था

जो उसके चरित्र को खा गया।

सब लक्ष्मण रेखा-उल्लंघन

की ही बात करते हैं,

सीता का  भाव किसने जाना।

लक्ष्मण रेखा के आदेश से बड़ा था

द्वार पर आये साधु का सम्मान

यह किसी ने समझा।

साधु के सम्मान की भावना

उसके जीवन का

कलंक कैसे बनकर रह गया,

ज़रूर सोचा करती होगी सीता

.

रावण कौन था, क्यों श्रापित था

क्या जानती थी सीता।

शायद नहीं जानती थी सीता।

सीता बस इतना जानती थी

कि वह

अशोक वाटिका में सुरक्षित थी

रावण की सेनानियों के बीच।

कभी अशोक वाटिका से

बचा लिया गया मुझे

मेरे राम द्वारा

तो क्या मेरा भविष्य इतना अनिश्चित होगा,

क्या कभी सोचा करती थी सीता

शायद नहीं सोचा करती थी इतना सीता।

-

क्या सोचा करती थी सीता

कि एक महापण्डित

महाज्ञानी के कारावास में रहने पर

उसे देनी होगी

अग्नि-परीक्षा अपने चरित्र की।

शायद नहीं सोचा करती थी सीता।

 

क्योंकि यह परीक्षा

केवल उसकी नहीं थी

थी उसकी भी

जिससे ज्ञान लिया था लक्ष्मण ने

मृत्यु के द्वार पर खड़े महा-महा ज्ञानी से।

विधाता ने क्यों रचा यह खेल

क्यों उसे ही माध्यम बनाया

कभी समझ पाई होगी सीता।

जाने किन जन्मों के

वरदान, श्राप और अभिशाप से

लिखी गई थी उसकी कथा

कहाॅं समझ पाई होगी सीता।

 

कथा बताती है

कि राजा ने अकाल में चलाया था हल

और पाया था एक घट

जिसमें कन्या थी

और वह थी सीता।

घट में रखकर

धरती के भीतर

कौन छोड़ गया था उसे

क्या परित्यक्त बालिका थी वह,

सोचती तो ज़रूर होगी सीता

किन्तु कभी समझ पाई होगी सीता।

.

 अग्नि में समाकर

अग्नि से निकलकर

पवित्र होकर भी

कहाॅं बन पाई

राजमहलों की राजरानी सीता।

अपना अपराध

कहाॅं समझ पाई होगी सीता।

.

लक्ष्मण के साथ

महलों से निकलकर

अयोध्या की सीमा पर छोड़ दी गई

नितान्त अकेली, विस्थापित

उदर में लिए राज-अंश

पद-विच्युत,

क्या कुछ समझ पाई होगी सीता

कहाॅं कुछ समझ पाई होगी सीता।

.

कैसे पहुॅंची होगी किसी सन्त के आश्रम

कैसे हुई होगी देखभाल

महलों से निष्कासित

राजकुमारों को वन में जन्म देकर

वनवासिनी का जीवन जीते

मैं बनी ही क्यों कभी रानी

ज़रूर सोचती होगी सीता

किन्तु कभी कुछ समझ पाई होगी सीता।

.

कितने वर्ष रही सन्तों के आश्रम में

क्या जीवन रहा होगा

क्या स्मृतियाॅं रही होंगी विगत की

शायद सब सोचती होगी सीता

क्यों हुआ मेरे ही साथ ऐसा

कहाॅं समझ पाई होगी सीता।

.

तेरह वर्ष वन में काटे

एक काटा

अशोक वाटिका में,

चाहकर भी स्मृतियों में

नहीं पाते थे

राजमहल में काटे सुखद दिन

कितने दिन थे, कितना वर्ष

कहाॅं रह पाईं होंगी

उसके मन में मधुर स्मृतियाॅं।

. 

कहते हैं

उसके पति एकपत्नीव्रता रहे,

मर्यादा पुरुषोत्तम थे वे,

किन्तु

इससे उसे क्या मिला भला जीवन में

उसके बिना भी तो

उनका जीवन निर्बाध चला

फिर वह आई ही क्यों थी उस जीवन में

ज़रूर सोचती  होगी सीता।

.

चक्रवर्ती सम्राट बनने में भी

नहीं बाधा आई उसकी अनुपस्थिति।

जहाॅं मूर्ति से

एक राजा

चक्रवर्ती राजा बन सकता था

तो आवश्यकता ही कहाॅं थी महारानी की

और क्यों थी ,

ज़रूर सोचा करती होगी सीता।

.

ज़रूर सोचा करती होगी सीता

अपने इस दुर्भाग्य पर

उसके पुत्र रामकथा तो जानते थे

किन्तु नहीं जानते थे

कथा के पीछे की कथा।

वे जानते थे

तो केवल राजा राम का प्रताप

न्याय, पितृ-भक्त, वचनों के पालक

एवं मर्यादाओं की बात।

.

वे नहीं जानते थे

किसी महारानी सीता को

चरित्र-लांछित सीता को,

अग्नि-परीक्षा देकर भी

राजमहलों से

विस्थापित हुई सीता को।

नितान्त अकेली वन में छोड़ दी गई

किसी सीता को।

इतनी बड़ी कथा को

कैसे समझा सकती थी

अपने पुत्रों को सीता

नहीं समझा सकती थी सीता।

-

अश्वमेध का अश्व जिसे

राजाओं के पास,

राज्यों में घूमना था

वाल्मीकि आश्रम कैसे पहुॅंच गया

और उसके पुत्रों ने

उस अश्व को रोककर

युद्ध क्यों किया।

क्यों विजित हुए वे

तीनों भाईयों से,

कि राम को आना पड़ा

.

जीवन के पिछले सारे अध्याय

बन्द कर चुकी थी सीता।

वह अतीत में थी

वर्तमान में

भविष्य को लेकर

आशान्वित रही होगी

वनदेवी के रूप में

जीवन व्यतीत करती हुई सीता।

और इस नवीन अध्याय की तो

कल्पना भी नहीं की होगी

समझ सकी होगी इसे सीता।

.

कैसे समझ सकती थी सीता

कि यह उसके जीवन के पटाक्षेप का

अध्याय लिखा जा रहा था

कहाॅं समझ सकती थी सीता।

जीवन की इस एक नई आंधी के बारे में

कभी सोच भी नहीं सकती थी सीता।

.

पवित्रता तो अभी भी दांव पर थी।

चाहे कारागार में रही

अथवा वनवासिनी

प्रमाण तो चहिए ही था।

कैसे प्रमाणित कर सकती थी सीता।

धरा से निकली, धरा में समा गई सीता।

.

इससे तो

अशोक वाटिका में ही रह जाती

तो अपमानित तो न होती सीता

इतना तो ज़रूर सोचती होगी सीता

राजनीति अब बदल गई
राजनीति अब बदल गई, मानों दंगल हो रहे

देश-प्रेम की बात कहां, सब अपने सपने बो रहे

इसको काटो, उसको बांटों, बस सत्ता हथियानी है

धमा- चौकड़ी मची है मानों हथेली सरसों बो रहे

बनी-बनाई धारणाएं लिए घूमते हैं

ऐसा क्यों है
कि कुछ बातों के लिए हम
बनी-बनाई धारणाएं लिए घूमते हैं।

बेचारा,
न जाने कैसी बोतल थी हाथ में
और क्या था गिलास में।
बस गिरा देखा
या कहूं
फि़सला देखा
हमने मान लिया कि दारू है।
सोचा नहीं एक बार
कि शायद सामने खड़े
दादाजी की दवा-दारू ही हो।
लीजिए
फिर दारू शब्द आ गया।

और यह भी तो हो सकता है
कि बेटा बेचारा
पिताजी की
बोतल छीनकर भागा हो
अब तो बस कर इस बुढ़ापे में बुढ़उ
क्यों अपनी जान लेने पर तुला है।

बेचारा गिर गया
और बापजी बोले
देखा, आया मजा़ ।
तू उठता रह
मैं नई लेने चला।

हमें भी मुस्‍काराना आ गया

फूलों को खिलते देख हमें भी मुस्‍काराना आ गया

गरजते बादलों को सुन हमें भी जताना आ गया

बहती नदी की धार ने सिखाया हमें चलते जाना

उंचे पर्वतों को देख हमें भी पांव जमाना आ गया

 

 

भूल-भुलैया की इक नगरी होती

भूल-भुलैया की इक नगरी होती

इसकी-उसकी बात न होती

सुबह-शाम कोई बात न होती

हर दिन नई मुलाकात तो होती

इसने ऐसा, उसने वैसा

ऐसे कैसे, वैसे कैसे

कोई न कहता।

रोज़ नई-नई बात तो होती

गिले-शिकवों की गली न होती,

चाहे राहें छोटी होतीं

या चौड़ी-चौड़ी होतीं

बस प्रेम-प्रीत की नगरी होती

इसकी-उसकी, किसकी कैसे

ऐसी कभी कोई बात न होती

 

 

 

पांच-सात क्या पी ली

जगती हूं,उठती हूं, फिर सोती हूं,मनमस्त हूं

घड़ी की सूईयों को रोक दिया है, अलमस्त हूं

पूरा दिन पड़ा है कर लेंगे सारे काम देर-सबेर

बस पांच-सात क्या पी ली,(चाय),मदमस्त हूं

मन के आतंक के साये में

जिन्दगी

इतनी सरल सहज भी नहीं

कि जब चाहा

उठकर चहक लिए।

एक डर, एक खौफ़

के बीच घूमता है मन।

और यह डर

हर साये में है  रहता है अब।

ज़्यादा सुरक्षा में भी

असुरक्षा का

एहसास सालने लगा है अब।

संदेह की दीवारें, दरारें

बहुत बढ़ गई हैं।

अपने-पराये के बीच का भेद

अब टालने लगा है मन।

किस वेश में कौन मिलेगा

पहचान भूलता जा रहा है मन।

हाथ से हाथ मिलाकर

चलने का रास्ता भूलने लगे हैं

और अपनी अपनी राह

चलने लगे हैं हम।

और जब मन में पसरता है

अपने ही भीतर का आतंकवाद

तब अकेलापन सालता है मन।

आने वाली पीढ़ी को

अपनेपन, शांति, प्रेम, भाईचारे का

पाठ नहीं पढ़ाते हम।

सिखाते हैं उसे

जीवन में कैसे रहना है डर डर कर

अविश्वास, संदेह और बंद तालों में

उसे जीना सिखाते हैं हम।

मुठ्ठियां कस ली हैं

किसी से मिलने-मिलाने के लिए

हाथ नहीं बढ़ाते हैं हम।

बस हर समय

अपने ही मन के

आतंक के साये में जीते हें हम।

कुछ मीठे बोल बोलकर तो देखते

कुछ मीठे बोल

बोलकर तो देखते

हम यूं ही

तुम्हारे लिए

दिल के दरवाज़े खोल देते।

क्या पाया तुमने

यूं हमारा दिल

लहू-लुहान करके।

रिक्त मिला !

कुछ सूखे रक्त कण !

न किसी का नाम

न कोई पहचान !

-

इतना भी न जान पाये हमें

कि हम कोई भी बात

दिल में नहीं रखते थे।

अब, इसमें

हमारा क्या दोष

कि

शब्दों पर तुम्हारी

पकड़ ही न थी।

 

 

 

जीवन संघर्ष
 प्रदर्शन नहीं, जीवन संघर्ष की विवशता है यह

रोज़ी-रोटी और परवरिश का दायित्व है यह

धूप की माया हो, या हो आँधी-बारिश, शिशिर

कठोर धरा पर निडर पग बढ़ाना, जीवन है यह

व्रत एवं उपवास

‘‘व्रत’’ एवं ‘‘उपवास’’ हमारे पास ये दो शब्द हैं जिन्हें हम प्रायः एक ही अभिप्राय अथवा अर्थ में प्रयोग करते हैं अथवा कह सकते हैं कि पर्यायवाची शब्दों के रूप में प्रयोग करते हैं। किन्तु यह भी सत्य है कि पर्यायवाची शब्दों में भी अर्थ-भेद होता है।

व्याकरण के अनुसार ‘‘व्रत’’ शब्द का अर्थ ‘‘उपवास’’ के अतिरिक्त ‘‘शपथ, प्रण, क़सम, सौगंध’’ भी है। किन्तु हम वर्तमान में उपवास के लिए व्रत शब्द का ही अधिक प्रयोग करते हैं। वास्तव में उपवास करना भी एक व्रत है, सम्भवतः इसी कारण हम दोनों शब्दों का अर्थभेद भूलकर एक ही अभिप्राय से इनका प्रयोग करने लगे हैं।

क्या कभी आपने इस ओर ध्यान दिया है कि हमारे सारे व्रत बदलते मौसम में आते हैं। पहले नवरात्रि मार्च-अप्रैल में तथा दूसरी नवरात्रि सितम्बर-अक्तूबर में। इस समय मौसम बदलता है। प्रथम शीत ऋतु से ग्रीष्म में, द्वितीय सितम्बर-अक्तूबर में ग्रीष्म ऋतु से शीत में। शिवरात्रि पर्व भी मार्च में होता है और जन्माष्टी प्रायः अगस्त में, जब वर्षा ऋतु हमारे स्वास्थ्य को प्रभावित करती है। उपरान्त तीज, करवाचौथ, होई आदि उपवास के पर्व भी इसी मौसम में आते हैं। ग्रीष्म ऋतु में केवल जून में एक उपवास है निर्जलाकादशी। क्षेत्रानुसार भी अलग-अलग पर्व एवं व्रत-उपवास का विधान है।

बदलते मौसम में जहाँ हमारे खान-पान में परिवर्तन होने लगता है वहाँ हमारी पाचन-शक्ति भी प्रभावित होती है, निर्बल होने लगती है। उपवास एवं उपवास में विशेष एवं विविध प्रकार का खान-पान हमारे शरीर एवं पाचन-तंत्र को व्यवस्थित बनाने में सहायक होते हैं।

भारतीय मान्यताओं एवं हमारे भारतीय परिवारों में व्रत एवं उपवास एक अनुष्ठान है, पूजा विधि है, दिन, पर्व, काल की मान्यताएँ एवं परम्पराएँ हैं। स्वच्छता, पवित्रता, कठोर नियम, सबका बन्धन है। इसके अतिरिक्त माह एवं सप्ताह में कुछ दिन अधिक विशेष माने गये हैं, उन दिनों में भी खान-पान एवं व्रत का बन्धन माना जाता है, जैसे संक्राति, मंगलवार, बृहस्पतिवार, शनिवार, एकादशी आदि। अनेक परिवारों में इन में से किसी दिन खान-पान की शुद्धता, व्रत आदि का ध्यान किया जाता है। यह माना जाता है कि यदि सप्ताह में एक दिन उपवास किया जाये तो पाचन-शक्ति सबल रहती है एवं रोग-प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। कुछ पदार्थों का भी निषेध रहता है।

इन सबके साथ ही श्रृंगार की विधियाँ भी हैं। जैसे करवाचौथ एवं तीज पर मेंहदी लगाना। मेंहदी का प्रभाव भी मानव शरीर को शीतलता प्रदान करता है, यह त्वचा के लिए लाभदायक होती है एवं रक्त प्रवाह को भी प्रभावित करती है। अधिक ज्वर की स्थिति में पैरों के तलवों में मेंहदी का लेप किया जाता था।

इन व्रतों की भोज्य सामग्री शरीर को मौसम के अनुकूल बनाने के लिए एवं पाचन-तंत्र को सशक्त बनाने में सहायक होती है। यहाँ यह भी महत्वपूर्ण है कि भोजन में उन्हीं खाद्य-पदार्थों को सम्मिलित किया जाता है जो उसी मौसम के हों।

ये सब मान्यताएँ एवं पर्व पर्यावरण के अनुकूल, मानसिक एवं शारीरिक सन्तुलन नियन्त्रित रखने के लिए बने हैं। यह भी एक पूरा मौखिक ज्ञान-विज्ञान है जो महिलाएँ पीढ़ी-दर-पीढ़ी सौंपती थीं।

किन्तु काल प्रवाह में, जीवन-शैली के परिवर्तन के साथ, दिनचर्या की कार्यविधियों के अनुकूल व्यवस्थाएँ बदलने लगीं, परम्पराएँ तिरोहित होने लगीं एवं मान्यताएँ भी। क्षेत्रानुसार मनाए जाने वाले तीज-त्योहारों, व्रतों का क्षेत्र विस्तृत होने लगा, सब मिश्रित होने लगा। इसमें कुछ भी गलत-ठीक नहीं होता, स्वाभाविक होता है। परिवार सीमित होने लगे, एकल परिवार बनने लगे और महिलाएँ घर से बाहर निकलीं। इन सब एवं अन्य अनेक कारणों से व्यवस्थाओं पर हमारा नियन्त्रण नहीं रह गया और बहुत कुछ सुविधानुसार परिवर्तित हो गया अथवा बदली हुई जीवन-शैली में हम स्वयँ को ढालने लगे जो अत्यावश्यक था। जितना स्मरण है, सुविधा है, आवश्यक है, हमारी विधियाँ वहीं तक सीमित होने लगीं। जो सब करते हैं वही हम कर लेते हैं।

बदली हुई जीवन-शैली, पारिवारिक व्यवस्थाएँ, बाहरी दायित्वों के कारण व्रतों के लिए बाज़ार स्वयँमेव ही सुविधाएँ एवं सामग्री उपलब्ध करवाने लगा। पहले हर वस्तु घर में बनाई जाती थी, किन्तु अब न वह कला बची है, न समय, न ही आवश्यकता। रसोई बदल गई, खान-पान के नियम बदल गये, समय-निर्धारण खो गया। रसोई घर स्टैंडिग हो गये, नियम स्वतः भंग होते चले गये, शायद यह कहना सकारात्मक होगा कि सुविधानुसार एवं बदली जीवन-शैली के अनुसार परिवर्तन स्वीकार कर लिए गये।

यही जीवन है और इसे हमें स्वीकार करना ही होगा अथवा करना ही चाहिए ऐसा मेरे विचार हैं।

 

न इधर मिली न उधर मिली

नहीं जा पाये हम शाला, बाहर पड़ा था गहरा पाला

राह में इधर आई गउशाला, और उधर आई मधुशाला

एक कदम इधर जाता था, एक कदम उधर जाता था

न इधर मिली, न उधर मिली, हम रह गये हाला-बेहाला

अपनापन

जब किसी अपने

या फिर

किसी अजनबी के साथ

समय का

अपनत् होने लगता है,

तब जीवन की गाड़ी

सही पहियों पर

आप ही दौड़ने लगती है,

और गंतव् तक

सुरक्षित

लेकर ही जाती है।

 

चिन्ता में पड़ी हूँ मैं

सब्ज़ी वाला आया न, सुबह से द्वार खड़ी हूँ मैं

आते होंगे भोजन के लिए, चिन्ता में पड़ी हूँ मैं

स्कूटी मेरी पंक्चर खड़ी, मण्डी तक जाऊँ कैसे

काम में हाथ बंटाया करो कितनी बार लड़ी हूँ मैं

ज़्यादा मत उड़

कौन सी वास्तविकता है

और कौन सा छल,

अक्सर असमंजस में रह जाती हूं।

रोज़ हर रोज़

समाचारों में गूंजती हैं आवाजे़ं

देखो हमने

नारी को

कहां से कहां पहुंचा दिया।

किसी ने चूल्हा बांटा ,

किसी ने गैस,

किसी की सब्सिडी छीनी        

तो किसी की आस।

नौकरियां बांट रहे।

घर संवार रहे।

मौज करवा रहे।

स्टेटस दिलवा रहे।

कभी चांद पर खड़ी दिखी।

कभी मंच पर अड़ी दिखी।

आधुनिकता की सीढ़ी पर

आगे और आगे बढ़ी।

अपना यह चित्र देख अघाती नहीं।

अंधविश्वासों    ,

कुरीतियों का विरोध कर

मदमाती रही।

प्रंशसा के अंबार लगने लगे।

तुम्हारे नाम के कसीदे

बनने लगे।

साथ ही सब कहने लगे

ऐसी औरतें घर-बार की रहती नहीं

पर तुम अड़ी रही

ज़रा भी डिगी नहीं।

-

ज़्यादा मत उड़ ।

कहीं भी हो आओ

लौटकर यहीं,

यही चूल्हा-चौका करना है।

परम्पराओं के नाम पर

घूंघट की ओट में जीना है।

और ऐसे ही मरना है।।।

 

ताकता रह जाता है मानव

लहरें उठ रहीं

आकाश को छूने चलीं

बादल झुक रहे

लहरों को दुलारते

धरा को पुकारते।

गगन और धरा पर

जल और अनिल

उलझ पड़े

बदरी रूठ-रूठ उमड़ रही

रंग बदरंग हो रहे

कालिमा घिर रही

बवंडर उठ रहे

ताकता रह जाता है मानव।

 

शायद प्यार से मन मिला नहीं था

यूं तो उनसे कोई गिला नहीं था

यादों का कोई सिला नहीं था

कभी-कभी मिल लेते थे यूं ही

शायद प्यार से मन मिला नहीं था

 

चल मन आज भीग लेते हैं ज़रा

चल मन आज भीग लेते हैं ज़रा

हवाओं का रूख देख लेते हैं ज़रा

धरा भी नम होकर स्वागत कर रही

हटा आवरण, हवाओं संग उड़ते हैं ज़रा

कलश तेरी माया अद्भुत है

 

कलश तेरी माया अद्भुत है, अद्भुत है तेरी कहानी।

माटी से निर्मित, हमें बताता जीवन की पूरी कहानी।

जल भरकर प्यास बुझाता, पूजा-विधि तेरे बिना अधूरी,

पर, अंतकाल में कलश फूटता, बस यही मेरी कहानी।

आजकल मेरी कृतियां

 आजकल

मेरी कृतियां मुझसे ही उलझने लगी हैं।

लौट-लौटकर सवाल पूछने लगी हैं।

दायरे तोड़कर बाहर निकलने लगी हैं।

हाथ से कलम फिसलने लगी है।

मैं बांधती हूं इक आस में,

वे चौखट लांघकर

बाहर का रास्ता देखने में लगी हैं।

आजकल मेरी ही कृतियां,

मुझे एक अधूरापन जताती हैं ।

कभी आकार का उलाहना मिलता है,

कभी रूप-रंग का,

कभी शब्दों का अभाव खलता है।

अक्सर भावों की

उथल-पुथल हो जाया करती है।

भाव और होते हैं,

आकार और ले लेती हैं,

अनचाही-अनजानी-अनपहचानी कृतियां

पटल पर मनमानी करने लगती हैं।

टूटती हैं, बिखरती हैं,

बनती हैं, मिटती हैं,

रंग बदरंग होने लगते हैं।

आजकल मेरी ही  कृतियां

मुझसे ही दूरियां करने में लगी हैं।

मुझे ही उलाहना देने में लगी हैं।

 

मन उदास क्यों है

कभी-कभी

हम जान ही नहीं पाते

कि मन उदास क्यों है।

और जब

उदास होती हूं,

तो चुप हो जाती हूं अक्सर।

अपने-आप से

भीतर ही भीतर

तर्क-वितर्क करने लगती हूं।

तुम इसे, मेरी

बेबात की नाराज़गी

समझ बैठते हो।

न जाने कब के रूके आंसू

आंखों की कोरों पर आ बैठते हैं।

मन चाहता है

किसी का हाथ

सहला जाये इस अनजाने दर्द को।

लेकिन तुम इसे

मेरा नाराज़गी जताने का

एहसास कराने का

नारीनुमा तरीका मान लेते हो।

.

पढ़ लेती हूं

तुम्हारी आंखों में

तुम्हारा नज़रिया,

तुम्हारे चेहरे पर खिंचती रेखाएं,

और तुम्हारी नाराज़गी।

और मैं तुम्हें मनाने लगती हूं।

 

 

आप चलेंगे साथ मेरे

हम जानते हैं न

कि रक्त लाल होता है

गाढ़ा लाल।

पर पता नहीं क्यों

इधर लोग

बहुत बात करने लगे हैं

कि फ़लां का खून तो

सफ़ेद हो गया।

और यह भी कि

किसी का खून तो

अब बस ठण्डा ही हो गया है

कुछ भी हो जाये

उबाल ही नहीं आता।

 

मुझे और किसी के

खून से क्या लेना-देना

अपने ही खून की

जाँच करवाने जा रही हूँ

अभी लाल ही है

या सफ़ेद हो गया

ठण्डा है

या आता है

इसमें भी कभी उबाल।

आप चलेंगे साथ मेरे

जाँच के लिए ?

 

दर्दे दिल के निशान

 

काश! मेरा मन रेत का कोई बसेरा होता।

सागर तट पर बिखरे कणों का घनेरा होता।

दर्दे दिल के निशान मिटा देतीं लहरें, हवाएं,

सागर तल से उगता हर नया सवेरा होता।