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मन में विषधर पाले

विषधर तो है !

लेकिन देखना होगा,

विष कहां है?

आजकल लोग

परिपक्व हो गये हैं,

विष निकाल लिया जाता है,

और इंसान के मुख में

संग्रहीत होता है।

तुम यह समझकर

नाग को मारना,

कुचलना चाहते हो,

कि यही है विषधर

जो तुम्हें काट सकता है।

अब न तो

नाग पकड़ने वाले रह गये,

कि नाग का नृत्य दिखाएंगे,

न नाग पंचमी पर

दुग्ध-दहीं से अभिषेक करने वाले।

मन में विषधर पाले

ढूंढ लो चाहे कितने,

मिल जायेंगे चाहने वाले।

स्थायी समाधान की बात मत करना
हर रोज़ नहीं करते हम

चिन्ता किसी भी समस्या की,

जब तक विकराल न हो जाये।

बात तो करते हैं

किन्तु समाधान ढूँढना

हमारा काम नहीं है।

हाँ, नौटंकी हम खूब

करना जानते हैं।

खूब चिन्ताएँ परोसते हैं

नारे बनाते हैं

बातें बनाते हैं।

ग्रीष्म ऋतु में ही

हमें याद आता है

जल संरक्षण

शीत ऋतु में आप

स्वतन्त्र हैं

बर्बादी के लिए।

जल की ही क्यों,

समस्या हो पर्यावरण की

वृक्षारोपण की बात हो

अथवा वृक्षों को बचाने की

या हो बात

पशु-पक्षियों के हित की

याद आ जाती है

कभी-कभी,

खाना डालिए, पानी रखिए,

बातें बनाईये

और कोई नई समस्या ढूँढिये

चर्चा के लिए।

बस

स्थायी समाधान की बात मत करना।

 

खुशियों का आभास देती
हरे-हरे पल्लव कब पीत हुए, कब झर गये

नव-पल्लव अंकुरित हुए, चकित मुझे कर गये

खुशियों का आभास देती खिलीं पुष्पांजलियाॅं

फूलों की पंखुरियों ने रंग लिखे, मन भर गये

आशाओं की चमक

मन के गलियारों में रोशनी भी है और अंधेरा भी
कुछ आवाज़ें रात की हैं और कुछ दिखाती सवेरा भी
कभी सूरज चमकता है और कभी लगता है ग्रहण
आशाओं की चमक से टूटता है निराशाओं का घेरा भी

अंधेरों में रोशनी की आस

कुहासे में ज़िन्दगी धीरे-धीरे सरक रही

कहीं खड़ी, कहीं रुकी-सी आगे बढ़ रही

अंधेरों में रोशनी की एक आस है देखिए

रवि किरणें भी इस अंधेरे में राह ढूॅंढ रहीं।

अभिनन्दन करते मातृभूमि का

 

वन्दन करते, अभिनन्दन करते मातृभूमि का जिस पर हमने जन्म लिया

लोकतन्त्र देता अधिकार असीमित, क्या कर्त्तव्यों की ओर कभी ध्यान दिया

देशभक्ति के नारों से, कुछ गीतों, कुछ व्याखानों से, जय-जय-जयकारों से ,

पूछती हूं स्वयं से, इससे हटकर देशहित में और कौन-कौन-सा कर्म किया

तुमसे ही करते हैं तुम्हारी शिकायत

क्षणिक आवेश में कुछ भी कह देते हैं

शब्द तुम्हारे लौटते नहीं, सह लेते हैं

तुमसे ही करते हैं तुम्हारी शिकायत

इस मूर्खता को आप क्या कहते हैं

बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ

इधर बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ

अभियान ज़ोरों पर है।

विज्ञापनों में भरपूर छाया है

जिसे देखो वही आगे आया है।

भ्रूण हत्याओं के विरूद्ध नारे लग रहे हैं

लोग इस हेतु

घरों से निकलकर सड़कों पर आ रहे हैं,

मोमबत्तियां जला रहे हैं।

लेकिन क्या सच में ही

बदली है हमारी मानसिकता !

प्रत्येक नवजात के चेहरे पर

बालक की ही छवि दिखाई देती है

बालिका तो कहीं

दूर दूर तक नज़र नहीं आती है।

इस चित्र में एक मासूम की यह छवि

किसी की दृष्टि में चमकता सितारा है

तो कहीं मसीहा और जग का तारणहार।

कहीं आंखों का तारा है तो कहीं राजदुलारा।

एक साधारण बालिका की चाह तो

हमने कब की त्याग दी है

अब हम लक्ष्मी, सरस्वती, दुर्गा

की भी बात नहीं करते।

कभी लक्ष्मीबाई की चर्चा हुआ करती थी

अब तो हम उसको भी याद नहीं करते।

पी. टी. उषा, मैरी काम, सान्या, बिछेन्द्री पाल

को तो हम जानते ही नहीं

कि कहें

कि ईश्वर इन जैसी संतान देना।

कोई उपमाएं, प्रतीक नहीं हैं हमारे पास

अपनी बेटियों के जन्म की खुशी मनाने के लिए।

शायद आपको लग रहा होगा

मैं विषय-भ्रम में हूं।

जी नहीं,

इस नवजात को मैं भी देख रही हूं

एक चमकते सितारे की तरह

रोशनी से भरपूर।

किन्तु मैं यह नहीं समझ पा रही हूं

कि इस चित्र में सबको

एक नवजात बालक की ही प्रतीति

क्यों है

बालिका की क्यों नहीं।

ऐसा नहीं होता मेरे मालिक

 

कर्म न करना,

परिश्रम न करना,

धर्म न निभाना

बस राम-नाम जपना।

.

आंखें बन्द कर लेने से

बिल्ली नहीं भाग जाती।

राम-नाम जपने से

समस्या हल नहीं हो जाती।

.

कुछ चरित्र हमें राह दिखाते हैं।

सन्मार्ग पर चलाते हैं।

किन्तु उनका नाम लेकर

हाथ पर हाथ धरे

बैठने को नहीं कहते हैं।

.

बुद्धि दी, समझ दी,

दी हमें निर्माण-विध्वंस की शक्ति।

दुरुपयोग-सदुपयोग हमारे हाथ में था।

.

भूलें करें हम,

उलट-पुलट करें हम,

और जब हाथ से बाहर की बात हो,

तो हे राम ! हे राम!

.

ऐसा नहीं होता मेरे मालिक।

हमारी राहें ये संवारते हैं

यह उन लोगों का

स्वच्छता अभियान है

जो नहीं जानते

कि राजनीति क्या है

क्या है नारे

कहां हैं पोस्टर

जहां उनकी तस्वीर नहीं छपती

छपती है उन लोगों की छवि

जिनकी

छवि ही नहीं होती

कुछ सफ़ेदपोश

साफ़ सड़कों पर

साफ़ झाड़ू लगाते देखे जाते रहे

और ये लोग उनका मैला ढोते रहे।

प्रकृति भी इनकी परीक्षा लेती है,

तरू अरू पल्लव झरते हैं

एक नये की आस में

हम आगे बढ़ते हैं

हमारी राहें ये

संवारते हैं

और हम इन्हीं को नकारते हैं।

बिखरती है ज़िन्दगी

अपनों के बीच

निकलती है ज़िन्दगी,

न जाने कैसे-कैसे

बिखरती है ज़िन्दगी।

बहुत बार रोता है मन

कहने को कहता है मन।

किससे कहें

कैसे कहें

कौन समझेगा यहां

अपनों के बीच

जब बीतती है ज़िन्दगी।

शब्दों को शब्द नहीं दे पाते

आंखों से आंसू नहीं बहते

किसी को समझा नहीं पाते।

लेकिन

जीवन के कुछ

अनमोल संयोग भी होते हैं

जब बिन बोले ही

मन की बातों को

कुछ गैर समझ लेते हैं

सान्त्वना के वे पल

जीवन को

मधुर-मधुर भाव दे जाते हैं।

अपनों से बढ़कर

अपनापन दे जाते हैं।

 

सुन्दर है संसार

जीवन में

बहुत कुछ अच्छा मिलता है,

तो बुरा भी।

आह्लादकारी पल मिलते हैं,

तो कष्टों को भी झेलना पड़ता है।

सफ़लता आंगन में

कुलांचे भरती है,

तो कभी असफ़लताएं

देहरी के भीतर पसरी रहती हैं।

छल और प्रेम

दोनों जीवन साथी हैं।

कभी मन में

डर-डर कर जीता है,

तो कभी साहस की सीढ़ियां

हिमालय लांघ जाती हैं।

जीवन में खट्टा-मीठा सब मिलता है,

बस चुनना पड़ता है।

और प्रकृति के अद्भुत रूप तो

पल-पल जीने का

संदेश दे जाते हैं,

बस समझने पड़ते हैं।

एक सौन्दर्य

हमारे भीतर है,

एक सौन्दर्य बाहर।

दोनों को एक साथ जीने में

सुन्दर है संसार।

कामना मेरी

और सुन्दर हो संसार।

 

 

आई दुल्हन

 

पायल पहले रूनझुन करती आई दुल्हन।

कंगन बजते, हार खनकते, आई दुल्हन।

श्रृंगार किये, सबके मन में रस बरसाती]

घर में खुशियों के रंग बिखेरे आई दुल्हन।

कुहासे में उलझी जि़न्दगी

कभी-कभी

छोटी-छोटी रोशनी भी

मन आलोकित कर जाती है।

कुहासे में उलझी जि़न्दगी

एक बेहिसाब पटरी पर

दौड़ती चली जाती है।

राहों में आती हैं

कितनी ही रोशनियां

कितने ठहराव

कुछ नये, कुछ पुराने,

जाने-अनजाने पड़ाव

कभी कोई अनायास बन्द कर देता है

और कभी उन्मुक्तु हो जाते हैं सब द्वार

बस मन आश्‍वस्‍त है

कि जो भी हो

देर-सवेर

अपने ठिकाने पहुंच ही जाती है।

 

किसकी टोपी किसका सिर

बचपन में कथा पढ़ी है,

टोपी वाला टोपी बेचे,

पेड़ के नीचे सो जाये।

बन्दर उसकी टोपी ले गये,

पेड़ पर बैठे उसे चिड़ायें।

टोपी पहने भागे जायें।

बन्दर थे पर नकल उतारें।

टोपी वाले ने आजमाया

अपनी टोपी फेंक दिखलाया।

बन्दरों ने भी टोपी फेंकी,

टोपी वाला ले उठाये।

.

हर पांच साल में आती हैं,

टोपी पहनाकर जाती हैं।

समझ आये तो ठीक

नहीं तो जाकर माथा पीट।

 

पता नहीं ज़िन्दगी में क्या बनना है

तुम्हें ज़िन्दगी में कुछ बनना है कि नहीं? अंग्रेज़ी में बस 70 अंक और गणित में 75। अकेले तुम हो जिसके 70 अंक हैं, सब बच्चों के 80 से ज़्यादा हैं।  हिन्दी में 95 आ भी गये तो क्या तीर मार लोगे, शिक्षक महोदय वरूण को सारी कक्षा के सामने डांटते हुए बोले। चपड़ासी भी नहीं बन पाओगे इस तरह तो, आजकल चपड़ासी को भी अच्छी इंग्लिश आनी चाहिए, क्या करोगे ज़िन्दगी में। अपने पापा को बुलाकर लाना कल।

वरूण डरता-डरता घर पहुंचा । मां जानती थी कि आज अर्द्धवार्षिक परीक्षा का रिपोर्ट कार्ड होगा। बच्चे का उतरा चेहरा देखकर कुछ नहीं बोली, बस ,खाना खिलाकर खेलने भेज दिया। फिर बैग से रिपोर्ट कार्ड निकाल कर देखा और दौड़कर बाहर से वरूण को बांह खींचकर ले आई और गुस्से से बोली, रिपोर्ट कार्ड क्यों नहीं दिखाया ?वरूण रोने लगा, लेकिन मां ने पुचकार कर पकड़ लिया, अरे ,मैंने तो शाबाशी देने के लिए बुलाया है। इतने अच्छे अंक आये हैं रोता क्यों है? हिन्दी में 95 । वाह! अंगे्रज़ी में कुछ कम हैं पर कोई बात नहीं, कौन-सा अंगे्रज़ी का टीचर बनना है। और गणित में भी ठीक हैं। पापा भी खुश हो जायेंगे। वरूण बोला किन्तु मां, सर तो कहते हैं 100 आने चाहिए।

100? कोई रूपये हैं कि सौ के सौ आ जायेंगे, तू चिन्ता न कर।

संध्या पापा की आवाज़ सुनकर दरवाजे़ के पीछे छिप-सा गया। लेकिन वरूण हैरान था कि पापा भी खुश हैं। आवाज़ दी, कहां हो वरूण, लो तुम्हारी पसन्द की मिठाई लाया हूं। वरूण फिर भी सहमा-सा था। पापा उसके मुंह में गुलाबजामुन डालते हुए बोले , वाह बेटा अंग्रेज़ी में 70 अंक, मेरे तो सात आते थे, हा हा ।

और वरूण अचम्भित-सा खड़ा था समझ नहीं पा रहा था कि उसके अंक कैसे हैं।

   

कहीं अंग्रेज़ी के कहीं हिन्दी के फूल

कहीं अंग्रेज़ी के कहीं हिन्दी के फूल बना रहे हैं राजाजी

हरदम केतली चढ़ा अपनी वीरता दिखा रहे हैं राजाजी

पानी खौल गया, आग बुझी, कभी भड़क गई देखो ज़रा

फीकी, बासी चाय पिला-पिलाकर बहका रहे हैं राजाजी

स्वाधीनता हमारे लिए स्वच्छन्दता बन गई

एक स्वाधीनता हमने

अंग्रेज़ो से पाई थी,

उसका रंग लाल था।

पढ़ते हैं कहानियों में,

सुनते हैं गीतों में,

वीरों की कथाएं, शौर्य की गाथाएं।

किसी समूह,

जाति, धर्म से नहीं जुड़े थे,

बेनाम थे वे सब।

बस एक नाम जानते थे

एक आस पालते थे,

आज़ादी आज़ादी और आज़ादी।

तिरंगे के मान के साथ

स्वाधीनता पाई हमने

गौरवशाली हुआ यह देश।

मुक्ति मिली हमें वर्षों की

पराधीनता से।

हम इतने अधीर थे

मानों किसी अबोध बालक के हाथ

जिन्न लग गया हो।

समझ ही नहीं पाये,

कब स्वाधीनता हमारे लिए

स्वच्छन्दता बन गई।

पहले देश टूटा था,

अब सोच बिखरने लगी।

स्वतन्त्रता, आज़ादी और

स्वाधीनता के अर्थ बदल गये।

मुक्ति और स्वायत्तता की कामना लिए

कुछ शब्दों के चक्रव्यूह में फ़ंसे हम,

नवीन अर्थ मढ़ रहे हैं।

भेड़-चाल चल रहे हैं।

आधी-अधूरी जानकारियों के साथ

रोज़ मर रहे हैं और मार रहे हैं।

-

वे, जो हर युग में आते थे

वेश और भेष बदल कर,

लगता है वे भी

हार मान बैठ हैं।

 

 

जरा सी रोशनी के लिए

जरा सी रोशनी के लिए

सूरज धरा पर उतारने में लगे हैं

जरा सी रोशनी के लिए

दीप से घर जलाने में लगे हैं

ज़रा-सी रोशनी के लिए

हाथ पर लौ रखकर घुमाने में लगे हैं

ज़रा-सी रोशनी के लिए

चांद-तारों को बहकाने में लगे हैं

ज़रा-सी रोशनी के लिए

आज की नहीं

कल की बात करने में लगे हैं

ज़रा -सी रोशनी के लिए

यूं ही शोर मचाने में लगे हैं।

.

यार ! छोड़ न !!

ट्यूब लाईट जला ले,

या फिर

सी एफ़ एल लगवा ले।।।

 

काश ! ऐसा हो जाये

सोचती हूं,

पर पहले ही बता दूं

कि जो मैं सोचती हूं

वह आपकी दृष्टि में

ठीक नहीं होगा,

किन्तु अपनी सोच को

रोक तो नहीं सकती,

और मेरी सोच पर

आप रोक लगा नहीं सकते,

और आपको बिना बताये

मैं रह भी नहीं सकती।

कितना अच्छा हो

कि संविधान में

नियम बन जाये

कि एक वेशभूषा

एक रंग और एक ही ढंग

जैसे विद्यालयों में बच्चों की

यूनिफ़ार्म।

फिर हाथ सामने जोड़ें

माथा टेकें

अथवा आकाश को पुकारें

कहीं कुछ अलग-सा

महसूस नहीं होगा,

चाहे तुम मुझे धूप से बचाओ

या मैं तुम्हें

वर्षा में भीगने के लिए खींच लूं

कोई गलत अर्थ नहीं निकालेगा,

कोई थोथी भावुकता नहीं परोसेगा

और शायद न ही कोई

आरोप जड़ेगा।

चलो,

आज बाज़ार चलकर

एक-सा पहनावा बनवा लें।

चलोगे क्या ??????

 

बेटी दिवस पर एक रचना

 

बेटियों के बस्तों में

किताबों के साथ

रख दी जाती हैं कुछ सतर्कताएं,

कुछ वर्जनाएं,

कुछ आदेश, और कुछ संदेश।

डर, चिन्ता, असुरक्षा की भावना,

जिन्हें

पैदा होते ही पिला देते हैं

हम उन्हें

घुट्टी की तरह।

बस यहीं नहीं रूकते हम।

और बोझा भरते हैं हम,

परम्पराओं, रीति-रिवाज़

संस्कार, मान्यताओं,

सहनशीलता और चुप्पी का।

 

इनके बोझ तले

दब जाती हैं

उनकी पुस्तकें।

कक्षाएं थम जाती हैं।

हम चाहते हैं

बेटियां आगे बढ़ें,

बेटियां खूब पढें,   

बेबाक, बिन्दास।

पर हमारा नज़र रहती है

हर समय

बेटी की नज़र पर।

 

जैसे ही कोई घटना

घटती है हमारे आस-पास,

हम बेटियों का बस्ता

और भारी कर देते हैं,

और भारी कर देते हैं।

कब दब जाती हैं,

उस भार के नीचे,

सांस घुटती है उनकी,

कराहती हैं,

बिलखती हैं

आज़ादी के लिए

पर हम समझ ही नहीं पाते

उनका कष्ट,

इस अनचाहे बोझ तले,

 कंधे झुक जाते हैं उनके,

और हम कहते हैं,

देखो, कितनी विनम्र

परम्परावदी है यह।

होगा कैसे मनोरंजन

कौन कहे ताक-झांक की आदत बुरी, होगा कैसे मनोरंजन

किस घर में क्या पकता, नहीं पता तो कैसे मानेगा मन

अपने बर्तन-भांडों की खट-पट चाहे सुनाये पूरी कथा

औरों की सीवन उधेड़ कर ही तो मिलता है चैन-अमन

कहां गये वे नेता -वेत्ता

कहां गये वे नेता -वेत्ता

चूल्हे बांटा करते थे।

किसी मंच से हमारी रोटी

अपने हित में सेंका करते थे।

बड़े-बड़े बोल बोलकर

नोटों की गिनती करते थे।

झूठी आस दिलाकर

वोटों की गिनती करते थे।

उन गैसों को ढूंढ रहे हम

किसी आधार से निकले थे,

कोई सब्सिडी, कोई पैसा

चीख-चीख कर हमको

मंचों से बतलाया करते थे।

वे गैस कहां जल रहे

जो हमारे नाम से लूटे थे।

बात करें हैं गांव-गांव की

पर शहरों में ही जाया करते थे।

 

आग कहीं भीतर जलती है

चूल्हे में जलता है दिल

अब हमको भरमाने को

कला, संस्कृति, परम्परा,

मां की बातें करते हैं।

सबको चाहे नया-नया,

मेरे नाम पर लीपा-पोती।

पंचतारा में भोजन करते

मुझको कहते चूल्हे में जा।

अपने-आपको अपने साथ ही बांटिये अपने-आप से मिलिए

हम अक्सर सन्नाटे और

शांति को एक समझ बैठते हैं।

 

शांति भीतर होती है,

और सन्नाटा !!

 

बाहर का सन्नाटा

जब भीतर पसरता है

बाहर से भीतर तक घेरता है,

तब तोड़ता है।

अन्तर्मन झिंझोड़ता है।

 

सन्नाटे में अक्सर

कुछ अशांत ध्वनियां होती हैं।

 

हवाएं चीरती हैं

पत्ते खड़खड़ाते हैं,

चिलचिलाती धूप में

बेवजह सनसनाती आवाज़ें,

लम्बी सूनी सड़कें

डराती हैं,

आंधियां अक्सर भीतर तक

झकझोरती हैं,

बड़ी दूर से आती हैं

कुत्ते की रोने की आवाज़ें,

बिल्लियां रिरियाती है।

पक्षियों की सहज बोली

चीख-सी लगने लगती है,

चेहरे बदनुमा दिखने लगते हैं।

 

हम वजह-बेवजह

अन्दर ही अन्दर घुटते हैं,

सोच-समझ

कुंद होने लगती है,

तब शांति की तलाश में निकलते हैं

किन्तु भीतर का सन्नाटा छोड़ता नहीं।

 

कोई न मिले

तो अपने-आपको

अपने साथ ही बांटिये,

अपने-आप से मिलिए,

लड़िए, झगड़िए, रूठिए,मनाईये।

कुछ खट्टा-मीठा, मिर्चीनुमा बनाईये

खाईए, और सन्नाटे को तोड़ डालिए।

इक नल लगवा दे भैया

कहां है अब पनघट

कहां है अब कृष्ण कन्हैया

क्यो इन सबमें

अब उलझा है मन दैया

इतना ही है तू

कृष्ण कन्हैया

तो मेरे घर में

इक नल लगवा दे भैया।

युग बदल गया

तू भी अपना यह वेश बदल,

न छेड़ बैठना किसी को

गोपी समझ के

कारागार के द्वार खुले हैं दैया।

गीत-संगीत सब बदल गये

रास-बिहारी खिसक गये

ढोल की ताल अब बहक गई

रास-बिहारी चले गये

किचन में कितना काम पड़ा है मैया

इतना ही है तू

कृष्ण कन्हैया

तो अपनी अंगुली से

मेरे घर के सारे काम

करवा दे रे भैया।

​​​​​​​

चलो, आज बेभाव अपनापन बांटते हैं

किसी की प्यास बुझा सकें तो क्या बात है।

किसी को बस यूं ही अपना बना सकें तो क्या बात है।

जब रह रह कर मन उदास होता है,

तब बिना वजह खिलखिला सकें तो क्या बात है।

चलो आज उड़ती चिड़िया के पंख गिने,

जो काम कोई न कर सकता हो,

वही आज कर लें तो क्या बात है।

चलो, आज बेभाव अपनापन बांटते हैं,

किसी अपने को सच में अपना बना सकें तो क्या बात है।

साथी तेरा प्यार

साथी तेरा प्यार

जैसे खट्टा-मीठा

मिर्ची का अचार।

कभी पतझड़

तो कभी बहार,

कभी कण्टक चुभते

कभी फूल खिलें।

कभी कड़क-कड़क

बिजली कड़के

कभी बिन बादल बरसात।

कभी नदियां उफ़ने

कभी तलछट बनते

कभी लहर-लहर

कभी भंवर-भंवर।

कभी राग बने

सुर-साज सजे

जीवन की हर तान बजे।

लुक-छिप, लुक-छिप

खेल चला

जीवन का यूं ही

मेल चला।

साथी तेरा प्यार

जैसे खट्टा-मीठा अचार।

 

पशु-पक्षियों का आयात-निर्यात

अभयारण्य

बड़े होते जा रहे हैं

हमारे घर छोटे।

हथियार

ज़्यादा होते जा रहे हैं

प्रेम-व्यवहार ओछे।

पढ़ा करते थे

हम पुस्तकों में

प्रकृति में पूरक हैं

सभी जीव-जन्तु

परस्पर।

कौन किसका भक्षक

कौन किसका रक्षक

तय था सब

पहले से ही।

किन्तु

हम मानव हैं

अपने में उत्कृष्ट,

प्रकृति-संचालन को भी

ले लिया अपने हाथ में।

पहले वन काट-काटकर

घर बना लिए

अब घरों में

वन बना रहे हैं

पौधे तो

रोपित कर ही रहे थे

अब पशु-पक्षियों के

आयात-निर्यात करने का

समय आ गया है।

 

इन्द्रधनुष-सी   ज़िन्दगी

प्रतिदिन निरखती हूँ

आकाश को

भावों से सराबोर

कभी मुस्कुराता

कभी खिल-खिल हँसता

कभी रूठता-मनाता

सूरज, चंदा, तारों संग खेलता

कभी मुट्ठी में बाँधता कभी छोड़ता।

बादलों को अपने ऊपर ओढ़ता

फिर बादलों की ओट से

झाँक-झाँक देखता।

.

आकाश में बिखरे रंगों से

कभी मुलाकात की है आपने?

मेरे मन में अक्सर उतर आते हैं।

गिन नहीं पाती, परख नहीं पाती

बस हाथों में लिए

निरखती रह जाती हूँ।

आकाश से धरा तक बरसते

चाँद-तारों संग गीत गाते

बादलों में उलझते

दिन-रात, सांझ-सवेरे

नवीन आकारों में ढलते

पल-पल, हर पल रूप बदलते

वर्षा की रिमझिम बूँदों से झांकते।

पत्तों पर लहराती

ओस की बूँदों के भीतर

छुपन-छुपाई खेलते।

.

और फिर

सूरज की किरणों से झांकती

रिमझिम बारिश के बीच से

रंगों के बनते हैं भंवर

जिनमें डूबता-उतरता है मन

आकाश में लहराते हैं

लहरिए सात रँग।

.

इन रँगों को अपनी आँखों से

मन के भीतर तक ले जाती हूँ

और इस तरह

इन्द्रधनुष-सी रंगीन

हो जाती है ज़िन्दगी।

 

कह रहा है आइना

कह रहा है आईना

ज़रा रंग बदलकर देख

अपना मन बदलकर देख।

देख अपने-आपको

बार-बार देख।

न देख औरों की नज़र से

अपने-आपको,

बस अपने आईने में देख।

एक नहीं

अनेक आईने लेकर देख।

देख ज़रा

कितने तेरे भाव हैं

कितने हैं तेरे रूप।

तेरे भीतर

कितना सच है

और कितना है झूठ।

झेल सके तो झेल

नहीं तो

आईने को तोड़कर देख।

नये-नये रूप देख

नये-नये भाव देख

साहस कर

अपने-आपको परखकर देख।

देख-देख

अपने-आपको आईने में देख।